सिखा दो ना, हे मधुप कुमारि !
मुझे भी अपने मीठे गान,
कुसुम के चुने कटोरों से,
करा दो ना, कुछ कुछ मधुपान !
नवल कलियों के धोरे झूम,
प्रसूनों के अधरों को चूम,
मुदित, कवि सी तुम अपना पाठ
सीखती हो सखि! जग में घूम;
सुना दो ना, तब हे सुकुमारि !
मुझे भी ये केसर के गान!
किसी के उर में तुम अनजान
कभी बँध जाती, बन चितचोर;
अधखिले, खिले, सुकोमल गान
गूँथती हो फिर उड़ उड़ भोर;
मुझे भी बतला दो न कुमारि!
मधुर निशि स्वजनों वे ये गान !
सूँघ चुन कर, सखि ! सारे फूल,
सहज बिंध बँध, निज सुख दुख भूल,
सरस रचती हो ऐसा राग
धूल बन जाती है मधुमूल;
पिला दो ना, तब हे सुकुमारि !
इसी से थोडे मधुमय गान;
कुसुम के खुले कटोरों से
करा दो ना, कुछ कुछ मधुपान !
(सितम्बर १९२२)
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