samcharpatra ke atamkatha
Answers
समाचारपत्र की आत्मकथा
मैं समाचार पत्र, आज मैं अपने बारे में आप सभी को बताना चाहता हुँ। मेरे जन्म का मुख्य उद्देश्य, सामाजिक, आर्थिक,खेल जगत या जो भी पूरे विश्व में हो रहा है या हो चुका है, उसकी खबर जन जन तक पहुँचाना। मैं काफी प्राचीन काल से अपने नाम को सार्थक कर रहा हुँ। समय एवं काल के अनुसार मेरा लिबास एवं तरीका चेन्ज होता रहता है।
प्राचीन काल में मैं डोंडी या डुग्गी के माध्यम से जनता से मिलता था, कभी भोज पत्रों के माध्यम से मैं युद्ध की विकट स्थिती, चमत्कार या राज्यारोहंण जैसे समारोह का वर्णन करता था। राजकीय घोषणाओं के लिये मैंने शिलाखण्ड का रूप अपना लिया। सम्राट अशोक ने मुझे धर्म प्रचार का भी काम सौपा जिससे मैं धन्य हो गया, क्योंकि अशोक के शिला लेख तो इतिहास प्रसिद्ध हैं। विश्व पत्रकारिता के उदय की दृष्टी से मैं समाचार पत्रों का पूर्वज हूँ।
धीरे धीरे मानव सभ्यता के विकास के साथ मेरा भी विकास होता गया। पाँचवी शताब्दी में रोम की राजधानी से दूर स्थित नागरिकों तक मैं संवाद लेखक के रूप में जाता था।
60 ई. पू. में जूलियस सीजर ने मेरा परिचय “एक्ट डायना” नाम से किया जहाँ मैं शासकीय घोषणाओं को प्रचारित करता था।
16वीं शताब्दी में मैं पर्ची के रूप में आया। मेरा काम किन्तु सदैव एक ही रहा; युद्धों का सजीव चित्रण, आश्चर्य में डालने वाले प्रसंग तथा राज दरबारों के रोचक किस्सों से जनमानस को अवगत कराना।
हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य की स्थापना से ही मेरे जीवन को नया आयाम मिला। इस काल में कुछ वाक्यानवीस (रीपोर्टर) हुआ करते थे जो मेरे लिये खबर लाया करते थे फिर मुझे हस्तलिखित कारिगर उन खबरों से सजाते थे। बहादुरशाह के काल में मैं “सिराज-उल-अखबार” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ईस्ट इण्डिया कंपनी को मुझसे हमेशा भय रहता था। उन दिनों जिन्हे कंपनी के विरुद्ध शिकायत थी उन महानुभावों ने मुझे अपने विचारों एवं शिकायतों से अलंकृत किया।
30मई 1826 को युगल किशोर शुक्ल ने मुझे “उदन्त मार्तन्ड” के नाम से प्रकाशित कर हिन्दी के प्रथम समाचारपत्र से गौरवान्वित किया। अल्प आयु यानी डेढ साल में आर्थिक परेशानियों से मुझे ग्रहण लग गया। ग्रहण की काली छाया मुझ पर से 10 मई, 1829 को दूर हुई जब राजाराम मोहन राय ने मुझे “बंगदूत” के नाम से सबसे परिचित कराया। मुझे नीलरतन हालदर ने शब्दों से सुसज्जित किया था। इसके बाद अलग-अलग जगहों पर विभिन्न समय एवं काल में मेरे भाई बन्धु अवतरित हुए।1826 ई. से 1873 ई. तक को मेरा पहला चरण कहा जा सकता है। बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। इस तरह मेरे परिवार का विकास हुआ।
1854 में श्यामसुन्दर सेन ने कलकत्ता में मुझे “सुधावर्षण” के नाम से जनता जनादर्न से प्रतिदिन मिलने का अवसर दिया।
1857 में “पयामें आजादी” के नाम से मुझे आजादी में सरीख होने का अवसर मिला। ये सौभाग्य मुझे नाना साहेब और अजिमुल्ला खाँ की वजह से मिला। “पयामें आजादी” के रूप मे मैं जनता में अपनी प्रखर एवं तेजस्वी वाणीं से जोश भरने में कामयाब रहा। मेरे द्वारा ही तात्कालीन राष्ट्रीय गीत लोगों तक पहुँचा जिसकी पंक्तियाँ निम्न थीं—
हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।
आज शहिदों ने मुझको, अहले वतन ललकारा।
तोङो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा।
आजादी की लङाई में मेरे अन्य भाई बन्धु जैसे- धर्मप्रकाश, सूरज प्रकाश, सर्वोकारक, प्रजापति, ज्ञानप्रकाश भी अपनी तेजस्वी वाणीं से लोगों में जोश भरने में कामयाब रहे।
आजादी के संघर्ष के बाद से आज तक मेरा विकास बहुत तेजी से हुआ। अनेक नामों से दुनिया को अपडेट करते हुए खुद भी अपडेट होता गया। आलम ये है कि आज मैं ई अखबार के रूप में आपके पी. सी. पर भी दस्तक दे चुका हूँ। आज कल तो मैं सुबह की चाय के साथ अनेक नामो जैसे- नई दुनिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दबंग दुनिया, आज, नवभारत टाइम्स आदी अनेक रूपों में उगते सूरज के साथ Good morning करने आपके घर पहुँच जाता हूँ और आप सभी को हर क्षेत्र की जानकारी से प्रकाशित कर अपने आपको धन्य समझता हुँ।
निम्न शब्दों से आज मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ-
चन्द पन्नों मे सिमटा, विस्तृत संसार हूँ मैं।
कभी कड़्वा, कभी तीखा-कभी विषैला,
इन्द्रधनुषी खबरों का, मायाजाला हूँ मैं।
सफेद कागज़ पर प्रिंट काला,
खबरों और विज्ञापनो का खजाना हूँ मैं।
आप सबका प्रिय समाचार पत्र हूँ मैं।