शिक्षा का उद्देश्य तथा वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर निबंध
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जन्म को मानवीय रूप देने के लिए शिक्षा की जरूरत पड़ती है। शिक्षा जीने की कला सिखाती है। यह कला विचार से पैदा होती है और विचारों के द्वारा जीवन की संगतियों और विसंगतियों की पहचान होती है। विचार से ही संतोष और असंतोष पैदा होता है।
विचार, असंतोष और संदेह जीवन की कलाएं हैं। विश्वास को केन्द्र पर रख कर भी जिया जा सकता है। लेकिन इनसे जीवन में ठहराव आ सकता है। यह जीवन को तालाब बना देगा जबकि जीवन का लक्ष्य नदी बनना है। नदी विचारों की खोज है, जो नहीं है उसे पाने की चेष्टा है। शिक्षा का उद्देश्य यही होना चाहिए।
शिक्षा चुनाव करने की कला सिखाती है। युग्मों पर आधारित जीवन के अवसरों को शिक्षा विवेक संगत बनाती है। जैसे कोई बेईमानी करने के अवसरों से वंचित है तो उसकी ईमानदारी का कोई अर्थ नहीं है। उसी प्रकार जो शिक्षा संगत विवेक नहीं पैदा करती है, वह शिक्षा सारवान तथा मूल्यवान नहीं हो सकती है।
हमारी सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था उत्तर पर निर्भर है। प्रश्न निर्भर नहीं। यह व्यवस्था उत्तर को मूल्य के रूप में स्थापित करती है। जबकि शिक्षा की बुनियादी चुनौती प्रश्न पैदा करना है। प्रश्न करने से चेतना का विकास होता है और व्यक्तित्व का रूपान्तरण होता है। जबकि उत्तर चेतना में संतोष पैदा करता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में डिग्रीधारी मानवी ढांचों का उत्पादन होता है, चैतन्य मनुष्य का नहीं।
आधुनिक शिक्षा प्राणाली की एक कमी यह है कि यह स्मृति पर आधारित शिक्षा है। जबकि इसे बोधगम्य शिक्षा होना चाहिए। स्मृति अतीत से सम्बन्धित है जबकि बोध [sense] भाविष्य से। स्मृति सूचनाओं का संग्रह है जो जीवन के पूर्व निर्धारित निर्णयों और निष्कर्षों पर आधारित है। जबकि बोधगम्यता शिक्षा इस चेतना से सम्बन्धित है जो अनजान और अज्ञात है। यह शिक्षा पद्धति सिर्फ पंडित बना सकती है, ज्ञानी नहीं। ज्ञान अस्तित्व के केन्द्र से फूटता है। अज्ञान और उसको प्रकट करने के आत्म संघर्ष से ज्ञान का उदय होता है।
शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी समस्या है-सूचनाओं का संज्ञान। शिक्षा में सूचनाओं का निषेध नहीं हो सकता। यह चाहिए कि सूचनाओं को विचार में परिवर्तित कर दिया जाय। इसको जीवंत बना दिया जाय। इसमें विद्यार्थी के अनुभव, उसके बेहद मामूली सवाल और उसकी कल्पानाओं को शामिल किया जाय।
हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था का मूल है सफलता
“पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब .............” यह विद्यार्थियों में लालच पैदा करती है। यह विद्यार्थीयों को प्रलोभन है। जबकि विद्यार्थी को यह बताना चाहिए कि “यदि पढ़ोगे तो तुम्हारे चित्त का विस्तार होगा, विकास होगा, विवेक पैदा होगा।” शिक्षा व्यवस्था को सफलता के रंगीन सपनों से निकालकर सुफल बनाने की जरूरत है।
अधुनिक शिक्षा व्यवस्था में ‘शिक्षक’ की अवधारणा है। जबकि पहले गुरू की अवधारणा थी। गुरू का शिक्षा, व्यवसाय नहीं था। गुरू होने का एक अपना अर्थ और आनंद था।
“गुरू गोविन्द दोऊ खड़े ................ ”
आज का शिक्षक व्यवसायी बन गया है। आज वह स्कूल से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक परीक्षार्थियों की मॉस प्रोडक्शन तथा मध्यस्थ्य की भूमिका में है। वह पहले से स्थापित सूचनाओं को विद्यार्थियों में संक्रमित कर देता है। यही कारण है कि सभी पुरानी सामाजिक बीमारियाँ, सारे पाखंड और अंधविश्वास पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती जा रही है। इस व्यवस्था में विद्यार्थी से पहले शिक्षक ही व्यक्तिहीन हो गया है। जबकि शिक्षक होना जीने और होने की सार्थकता में हैं। जिस प्रकार धर्म में अधार्मिक भर गये हैं उसी प्रकार शिक्षा व्यवस्था में गैर-शिक्षक भर गये हैं। जैसे पटना विश्व विद्यालय के एक प्रोफेसर, लखनऊ के एक नर्सिंग कॉलेज के मैनेजर और शिक्षक। अत: शिक्षक को कैसा चाहिए इस पर गाँधी जी के विचार – “जो शिक्षक पाठ्य पुस्तकों में से सीखता है वह अपने विद्यार्थियों को मौलिक विचार करने की शक्ति नहीं देता पुस्तकें जितनी कम होंगी उतने ही शिक्षक और विद्यार्थी दोनों लाभान्वित होंगे”।
किसी भी राष्ट्र अथवा समाज में शिक्षा सामाजिक नियंत्रण, व्यक्तित्व निर्माण तथा सामाजिक व आर्थिक प्रगति का मापदंड होती है । भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है जिसे सन् 1835 ई॰ में लागू किया गया ।
जिस तीव्र गति से भारत के सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिदृश्य में बदलाव आ रहा है उसे देखते हुए यह आवश्यक है कि हम देश की शिक्षा प्रणाली की पृष्ठभूमि, उद्देश्य, चुनौतियों तथा संकट पर गहन अवलोकन करें ।
सन् 1835 ई॰ में जब वर्तमान शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गई थी तब लार्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य भारत में प्रशासन के लिए बिचौलियों की भूमिका निभाने तथा सरकारी कार्य के लिए भारत के विशिष्ट लोगों को तैयार करना है ।