शशिख सयोग्यता विकास कासट्टालो आवाजलीसारिक संयोगिता विकास के सिद्धांतों का वर्णन करो हिंदी में शारीरिक संयुक्त विकास के सिद्धांतों का वर्णन करो
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शारीरिक विकास के चार प्रमुख चरण
1.परिचय
2.भूमिका
परिचय :
अन्य प्राणियों की अपेक्षा, मनुष्य के शरीरिक विकास की गति धीमी होती है| शैशवावस्था में शारीरिक वृद्धि एवं परिवर्तन तीव्रतम गति से होता है| बाल्यावस्था में यह गति धीमी हो जाती है पुन: किशोरावस्था में विकास तीव्रतम गति से होता है शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में शारीरिक विकास ‘सिर से पैर की ओर’ एवं ‘निकट से दूर की ओर’ के नियमनुसार होता है शारीरिक अनुपात में परिवर्तन एवं मांसपेशिया वसा आगे चलकर किशोरावस्था के दौरान एथलेटिक्स कौशल के विकास में सहायक होते हैं|
भूमिका :
गेसल ने शैशवावस्था के शरीरिक विकास को चार प्रमुख चरणों में विभाजित किया है| प्रथम चरण जन्म से 4 माह की आयु तक जो विभीन्न प्रकार के शरीरिक विकास एवं परिवर्तनों को व्यक्त करता है| दुसरे चरण: 4 से 8 माह की अवधि में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों, जिसमें लम्बाई और भार का बढ़ना शामिल है तथा शिशु के दो दांत भी आ जाते हैं| तीसरे चरण (8 से 12 माह की आयु) में होने वाले परिवर्तनों में मुख्य रूप से लड़के, लड़कियों के भार में अंतर पाया जाता है| चौथे चरण (12 से 18 माह की आयु) में होने वाले परिवर्तनों में भार एवं लम्बाई में सार्थक वृद्धि पायी जाती है| जिससे बच्चों में चलने की क्षमता, सीढ़ी चढ़ना, पैर उछलना एवं दो शब्दों वाले वाक्यों को बोलने की क्षमता विकसित हो जाती है| 18 से 24 माह (दो वर्ष) की आयु में विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों के अतिरिक्त बच्चों में अन्वेषण की प्रवृति पायी जाती है| वह चीजों को छिपाने अथवा ढूढ़ने जैसी क्रियाएँ करने लगता है|
शारीरक परिपक्वता की जानकारी खोपड़ी की आयु के आधार पर भी की जा सकती है| जन्म के समय लड़कियाँ अधिक विकसित होती हैं| यह विकास क्रम उम्र के साथ परिवर्तित होता रहता है| शारीरिक संस्थान निजी एवं विशिष्ट संरूप के अनुसार परिपक्व होते हैं| शारीरिक वृद्धि में कालिक प्रवृत्ति का प्रभाव पाया गया है| विकसित देशों के बच्चे पहले की तुलना में जल्दी परिपक्व एवं लम्बे होने लगे हैं| पिट्यूटरी ग्रंथि के हारमोंस स्राव द्वारा शारीरिक वृद्धि पर नियंत्रण होता है एवं इसकी नियमितता में हैपोथैलमस की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है|
शारीरिक विकास की भांति शिशु के गत्यात्मक विकास में भी ‘सिर से पैर की ओर’ एवं ‘निकट- दूर’ के नियम कार्य करते हैं| यद्यपि विकास का क्रम सभी बच्चों में समान रूप से ही होता है, तथापि विकास गति में वैयक्तिक भिन्नताएँ पायी जाती है हैं| नये कौशल के विकास में जटिल क्रियाओं के संस्थानों की भूमिका होती है| यद्यपि कौशलों के विकास में परिपक्वता की भूमिका प्रमुख होती है तथापि विभिन्न परिवेशीय कारक, जैसे- उपयुक्त अवसर, पालन पोषण के ढंग एवं समृद्ध परिवेश का प्रभाव प्रमुख रूप से पड़ता है| यद्यपि शिशु में ऐच्छिक प्रयास का आरम्भ असंयोजनात्मक होता है, परंतु धीरे- धीरे एक वर्ष बीतते – बीतते परिष्कृत हो जाता है| एक बार जब पहुँचने की प्रवृत्तियाँ पूर्ण का अभ्यास हो जाता है तब वह गत्यात्मक कौशलों के समाकलन में सहायक तो होता ही है, नये संज्ञानात्मक विकास में भी सहायक होता है|