short essay on sahitya and samaj in hindi
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साहित्य और समाज
मानव-जीवन और उसके द्वारा गठित समाज संसार में सर्वाोच्च है। इसी कारण सहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, धर्म आदि स्थूल या सूक्ष्म संसार में जो कुछ भी है, वह सब जीवन और मानव-समाज के लिए ही है, यह एक निर्विवाद मान्यता है। उससे पर या बाहर कुछ भी नहीं। मानव एक सामाहिक प्राणी है। वह व्यक्ति या समूह के स्तर जो कुछ भी सोचता, विचारता और भावना के स्तर पर संजोया करता है, वही सब लिखित या लिपिबद्ध होकर साहित्य कहलाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि साहित्य वस्तुत: जीवन और समाज में भावसामग्री लेकर, अपने शरीर या स्वरूप का निर्माण कर फिर वह सब जीवन और समाज को ही अर्पित कर दिया करता है। लेन-देन की यह प्रक्रिया साहित्य और समाज के आपसी संबंधों को प्राय: स्पष्ट कर देती है। जब से मानव ने सोचना-विचाना, पढऩा-लिखना और अपने-आपको दूसरों पर प्रकट करना सीखा है, तभी से साहित्य-समाज में आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया भी चल रही है और तब तक निरंतर चलती रहेगी, जब तक कि मनुष्यों में सोचने-विचारने आदि के ये गुण रहेंगे। इस दृष्टि से साहित्य और समाज का संबंध चिरंतन कहा जा सकता है।
पाश्चात्य विद्वान डिक्वेंसी ने साहित्य को मुख्य दो रूप स्वीकार किए हैं। एक, ज्ञान का साहित्य और दूसरा शक्ति का साहित्य। साहित्य के इस दूसरे रूप को ही ललित साहित्य कहा गया है कि जो यहां पर हमारा विचारणीय विषय है। ज्ञान के साहित्य के अंतर्गत गणित, भूगोल, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, विज्ञान आदि वे सारे विषय आते हैं कि जो इस भौतिक संसार में जीवन जीने के लिए परम आवश्यक हैं और यथार्थ जीवन जीने की कला सिखाते हैं। संसार में मानव-जीवन और समाज की सारी स्थूल प्रगतियों का आधार ये ही विषय हैं। इसके विपरीत शक्ति का साहित्य या ललित साहित्य का सीधा संबंध सूक्ष्म भाव जगत की अभिव्यक्ति के साथ रहा करता है। मानव-समाज की समस्त कोमल, कांत, हार्दिक भावनांए, जो आनंद का कारण तो बनती ही हैं, जीवन-समाज का दिशा-निर्देश भी करती है, उन सबका वर्णन ललित या शक्ति का साहित्य के अंतर्गत हुआ करता है। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि सभी विषय इस शक्ति के साहित्य के ही अंग माने गए हैं। स्पष्ट है कि चाहे ‘ज्ञान का साहित्य’ हो चाहे ‘शक्ति का साहित्य’ दोनों का मूल स्त्रोत मानव-समाज ही है। दोनों प्रकार के साहित्य का मूल उद्देश्य एंव प्रयोजन भी मानव-समाज और जीवन की सब प्रकार की प्रगतियों का मार्ग प्रशस्त कर उसे आनंदमय बनाना है। जो साहित्य ऐसा नहीं कर पाता, उसे साहित्य न कहकर कोरा शब्द-जाल ही कहा जाता है। इस प्रकार का शब्द-जाल अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाता।
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साहित्य मानव के मस्तिष्क का भोजन है, जिसकी वैचारिक चेतना के विकास का सूचक और भावों का आदर्श है. इसी कारण मानव समाज में साहित्य का अत्यधिक महत्व है. यही एक माध्यम है जिससे मानव मस्तिष्क का विकास क्रम तथा मानवीय भावनाओं का परिचय मिलता है. परोक्ष रूप में साहित्य मानव सभ्यता के विकास का सूचक भी है.
साहित्य का उद्देश्य क्या है (Hindi Essay on Sahitya Ke Udeshya)
विद्वानों ने साहित्य की अनेक परिभाषाएं दी है. पंडितराज विश्वनाथ ने साहित्य का अर्थ उन समस्त काव्य रचनाओं से है., जिसमे लोकिक ज्ञान का समावेश है. इस कारण साहित्य शब्द की व्युत्पति यह की गई ”हितेन सहितं सह वा सहितम तस्य भाव साहित्यम. अर्थात जिसमे हित की भाव, लोकमंगल का भाव विद्यमान हो, जिसके द्वारा समाज का हित चिन्तन व्यक्त हो
यद्यपि अपने हित और अहित का ज्ञान पशु पक्षियों को भी होता है. परन्तु मानव बुद्धिजीवी प्राणी है, वह अपने हित का चिन्तन अच्छी तरह से कर सकता है. समाज का संगठन भी मानव हित के लिए हुआ है. और मानव द्वारा समाज का हित करने के लिए साहित्य की रचना की जाती है.
इसी प्रकार आचार्य हजारीप्रसाद द्वेदी ने साहित्य की यह परिभाषा दी है- ज्ञान राशि के संचित कोष का नाम साहित्य है. आधुनिक काल में यह परिभाषा सर्वमान्य है और इससे साहित्य का महत्व स्पष्ट हो जाता है.
क्यों साहित्य हमारे लिए महत्वपूर्ण है (Importance of literature)
जैसा कि पहले बताया जा चूका है साहित्य रचना का उद्देश्य मानव समाज का हित चिन्तन करना तथा उसकी चेतना का पोषण करना है. इससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य लोक संग्रह के कारण ही उपयोगी माना जाता है. बिना उद्देश्य एवं उपयोगिता के किसी वस्तु की रचना नही की जा सकती है.
बिना उपयोगिता के रचा गया साहित्य मात्र कूड़ा कचरा ही है. जो रद्दी के ढेर में विलीन हो जाता है. लेकिन उपयोगी साहित्य अमर बन जाता है. इसलिए साहित्य की कसौटी उपयोगिता ही है.
साहित्य और समाज का सम्बन्ध (relationship literature and society)
साहित्य और समाज का अविच्छिन्न सम्बन्ध है. समाज यदि आत्मा है तो साहित्य उसका शरीर है. बिना समाज के साहित्य जीवित नही रह सकता है. बिना साहित्य के समाज का स्पष्ट प्रतिबिम्ब नही देखा जा सकता है. साहित्यकार एक समाज का ही अंग होता है.
उसकी शिक्षा दीक्षा समाज में ही होती है. उसे सामाजिक जीवन में ही अपने भावों तथा अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रेरणा मिलती है. इसलिए यह तात्कालीन समाज की रीती निति, धर्म-कर्म, आचार व्यवहार तथा अन्य परिस्थतियों में प्रभावित होकर अपनी प्रति के लिए प्रेरणा ग्रहण करता रहता है. साहित्य में उसी की अभिव्यक्ति रहती है.
समाज में जैसी परिस्थतियाँ एवं विचार होते है साहित्य में भी वैसा ही परिवर्तन आ जाता है. यदि समाज में वीर भावना है साहित्य में भी शौर्य का स्तवन होगा. समाज में विलासिता का सम्राज्य है तो साहित्य भी श्रंगारिक होगा. इसी कारण साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है. इस प्रकार स्पष्ट कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज परस्पर आश्रित और एक दूसरे के पूरक है.
साहित्य पर समाज का प्रभाव (Impact of society on literature)
कोई भी साहित्य अपने समाज से अछुता नही रह सकता है. साहित्य का प्रतिभा प्रासाद समाज के वातावरण पर ही खड़ा होता है. यह स्पष्ट देखा जाता है कि जैसा समाज होता है वैसा ही उस काल का साहित्य बन जाता है. उदहारण के लिए हिंदी साहित्य का आदिकाल एक प्रकार से युद्ध युग था. समाज में शौर्य और बलिदान की भावना थी वीरयोद्धा प्राणोत्सर्ग करना सामान्य बात समझते थे.
फलस्वरूप वीरगाथा काव्यों की रचना हुई. परवर्ती काल में मुगलों के आक्रमण से हिन्दू जनता पीड़ित थी इस कारण सूर और तुलसी आदि भक्त कवियों ने भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया तथा सामाजिक समन्वय की भरपूर चेष्टा की.
वर्तमान काल में साहित्य में सामाजिक द्रष्टिकोण का परिचायक है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समय की परिवर्तनशीलता के कारण समाज का साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा है.
साहित्य की विशेषताएँ (Literature Features)
साहित्य सामाजिक चेतना का परिचायक और मानव मस्तिष्क का पोषण है. समाज का साहित्य से और साहित्य का समाज से मौलिक सम्बन्ध है. समाज के बिना साहित्य की रचना संभव नही है. सामाजिक जीवन के साथ साथ साहित्य में भी परिवर्तन होता रहता है.
साहित्य का सौदर्य उसकी सामाजिक उपयोगिता ही है. यह व्यक्ति और समष्टि रूप में मानव समाज का उपकारक और उपदेष्टा है. इससे ही सत्य शिवम सुन्दरम की भावना पल्लवित होती है.