Shoshankari shaktiuo par ek 200 words ka anuched
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शोषणकारी ताकतों से टकराता जनकवि महेन्द्र 'नेह' - रमेश प्रजापति ( 1)
किसानों और मजदूरों की आत्महत्याओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में आज हताशाओं का दौर चल रहा है। प्राचीन काल से ही यह समुदाय अपने ऊपर हुए अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए छटपटाता रहा है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर उनकी इस बेचैनी ने क्रान्ति का रूप धारण करके शोषणकारी ताकतों का प्रतिरोध किया है ताकि शोषण मुक्त नए समाज का निर्माण हो सके। इस संबंध में मैक्सिम गोर्की ने पूँजीवादी ताकतों के शोषण तंत्र से इस निम्नवर्ग के समाज की मुक्ति का सपना देखते हुए कहा था- ''मुझे मालूम है एक ऐसा समय आएगा, जब लोग सौन्दर्य पर चकित होंगे, जब हर व्यक्ति एक सितारे की तरह होगा...सभी सितारे की तरह होंगे। तब दुनिया स्वतंत्र मनुष्यों की बस्ती होगी, वे अपनी आजादी में महान होंगे, सबके दिल खुले होंगे,र् ईष्या और जलन से हर कोई अपरिचित होगा। जीवन मनुष्य की सेवा में बदल जाएगा। मनुष्य आकर्षक और महान बन जाएगा, क्योंकि जो स्वतंत्र है, उसे सब कुछ सुलभ है। तब वे लोग सत्य और स्वतंत्रता में साँस लेंगे, वे सुन्दर के लिए जिएंगे और सबसे अच्छे लोग कहलाएंगे, जिनके हृदय में संसार समा सकेगा, जो सारी दुनिया को प्यार कर सकेंगे, वे लोग महान होंगे-वे लोग जिन्हें नया जीवन मिल चुका होगा।''परन्तु क्या उनका यह सपना अभी तक पूर्ण हुआ?
स्वप्न पूर्ण होना तो दूर की बात आज इस उत्तार आधुनिक काल में नया उपनिवेशवाद अपनी पूँजीवादी ताकतों के साथ भयावह रूप में किसानों और मजदूरों के सामने आकर खड़ा हो गये हैं। उन्होंने किसानों की जमीनों को नई खाद के द्वारा बंजर बनाना आरम्भ कर दिया और फिर 'विशेष आर्थिक क्षेत्र' के नाम पर उनसे उनकी जमीन हथियाने में लग गए हैं। मजदूरों के औजार छीनकर उत्पादन के नए तरीके प्रयोग में लाने शुरू कर दिए हैं। किसान-मजदूर जैसे निम्न वर्ग के अंदर घोर अवसाद और निराशा ने घर कर लिया जिस कारण ये आज आत्महत्या कर रहे हैं। पूँजीवाद ने समाज में वर्ग-भेद की स्थिति पैदा कर दी है तो मानव के अंदर अस्मिता का लोप होता जा रहा है। माक्र्स के अनुसार, ''पूँजीवादी व्यवस्था में इस अलगाव के शिकार सब वर्गों के लोग होते हैं किन्तु उसका सबसे घातक प्रभाव मज़दूर वर्ग पर पड़ता है।' ऐसे में सामाजिक चेतना और व्यवस्थाओं का विकास होना बड़ा ही संघर्षमय और जटिल होता जा रहा है।
इस मनुष्य विरोधी समय में जनवादी साहित्यकार का दायित्व और बढ़ जाता है। जनवादी रचनाकार का एक निहित उद्देश्य, व्यावहारिकता और द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण होता है। वह संसार की प्रत्येक घटनाओं और गतिविधियों पर उसकी पैनी नजर रखता है। उसका निम्नवर्ग के प्रति झुका होने के कारण वह किसानों और मजदूरों की ऑंखों से संसार को देखकर उसे विश्लेषित करता है और इन मेहनतकश जनों के संघर्षों को अपना समझकर उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देता है। इन्हीं किसानों और मजदूरों को आधार बनाकर रचना करने वाले कवि महेन्द्र नेह का दृष्टिकोण भी जनधर्मी रहा है। इस कवि ने निम्नवर्ग के संघर्ष को अपनी रचनाओं में विविध रूपों में बाँधा है। 'इस ऍंधेरे वक्त में' कविता में जहाँ शोषणकारी ताकतों का वर्चस्व है जिसके बल पर उन्होंने मजदूर वर्ग का सबकुछ छीनकर उनका जीना दूभर कर दिया है। मरने के बाद भी यह वर्ग सपनों को आग के सुनहरी लावे की तरह जिन्दा रखने की बात करता है। परन्तु कवि स्पष्ट कहता है-''तुम छीन सकते हो/ मुझसे मेरे पसीने से/उगाए फल/ मेरे खेत, घर-परिवार/छीन सकते हो तुम/ मेरे कमाने-खाने के औजार।''
वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के इस विकट समय में महेन्द्र नेह की कविताओं में सामाजिक सरोकार भाव प्रवणता, जनसामान्य का जीवन-संघर्र्ष, आत्म-संघर्ष तथा आशा-निराशा भरा स्वर मुखरित हुआ है। आज पूँजीवाद के वर्चस्व ने अपने विभिन्न रूपों में आकर निम्नवर्ग का जीवन संत्रासों से भर दिया है। सामान्य जन की अदम्य शक्ति में गहरा विश्वास रखने वाले कवि महेन्द्र नेह शोषितों की तबाह जिन्दगी और उनके संघर्षों को आत्मसात करके अपनी गहन अनुभूतियों और विचारों को कविताओं के माध्यम से चित्रित करते हैं। उनकी कविताएँ किसान-मजदूर के अंदर फैले उदासी के घेरे को तोड़कर उनमें चेतना और जिजीविषा भरने में सक्षम हैं। पूँजीवादी शक्तियों की प्रवत्तिायों के संदर्भ में गहरे आत्म विश्लेषण से गुजरते हुए महेन्द्र नेह ने इन शक्तियों का विरोध, सामान्यजन की समस्याओं और जरूरतों को महत्तव दिया है। साथ ही वे उस विकास प्रक्रिया के प्रति अपनी असहमति प्रकट करते दिखाई देते हैं जिसने निम्नवर्ग को पतन की ओर धकेल दिया है। इसी का परिणाम है कि इन्होंने पुलिस और माफिया की बर्बरता, मुकदमों को ही नहीं झेला बल्कि मेहनतकशों की आवाज़ को बुलन्द करने के संबंध में वे जे
किसानों और मजदूरों की आत्महत्याओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में आज हताशाओं का दौर चल रहा है। प्राचीन काल से ही यह समुदाय अपने ऊपर हुए अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए छटपटाता रहा है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर उनकी इस बेचैनी ने क्रान्ति का रूप धारण करके शोषणकारी ताकतों का प्रतिरोध किया है ताकि शोषण मुक्त नए समाज का निर्माण हो सके। इस संबंध में मैक्सिम गोर्की ने पूँजीवादी ताकतों के शोषण तंत्र से इस निम्नवर्ग के समाज की मुक्ति का सपना देखते हुए कहा था- ''मुझे मालूम है एक ऐसा समय आएगा, जब लोग सौन्दर्य पर चकित होंगे, जब हर व्यक्ति एक सितारे की तरह होगा...सभी सितारे की तरह होंगे। तब दुनिया स्वतंत्र मनुष्यों की बस्ती होगी, वे अपनी आजादी में महान होंगे, सबके दिल खुले होंगे,र् ईष्या और जलन से हर कोई अपरिचित होगा। जीवन मनुष्य की सेवा में बदल जाएगा। मनुष्य आकर्षक और महान बन जाएगा, क्योंकि जो स्वतंत्र है, उसे सब कुछ सुलभ है। तब वे लोग सत्य और स्वतंत्रता में साँस लेंगे, वे सुन्दर के लिए जिएंगे और सबसे अच्छे लोग कहलाएंगे, जिनके हृदय में संसार समा सकेगा, जो सारी दुनिया को प्यार कर सकेंगे, वे लोग महान होंगे-वे लोग जिन्हें नया जीवन मिल चुका होगा।''परन्तु क्या उनका यह सपना अभी तक पूर्ण हुआ?
स्वप्न पूर्ण होना तो दूर की बात आज इस उत्तार आधुनिक काल में नया उपनिवेशवाद अपनी पूँजीवादी ताकतों के साथ भयावह रूप में किसानों और मजदूरों के सामने आकर खड़ा हो गये हैं। उन्होंने किसानों की जमीनों को नई खाद के द्वारा बंजर बनाना आरम्भ कर दिया और फिर 'विशेष आर्थिक क्षेत्र' के नाम पर उनसे उनकी जमीन हथियाने में लग गए हैं। मजदूरों के औजार छीनकर उत्पादन के नए तरीके प्रयोग में लाने शुरू कर दिए हैं। किसान-मजदूर जैसे निम्न वर्ग के अंदर घोर अवसाद और निराशा ने घर कर लिया जिस कारण ये आज आत्महत्या कर रहे हैं। पूँजीवाद ने समाज में वर्ग-भेद की स्थिति पैदा कर दी है तो मानव के अंदर अस्मिता का लोप होता जा रहा है। माक्र्स के अनुसार, ''पूँजीवादी व्यवस्था में इस अलगाव के शिकार सब वर्गों के लोग होते हैं किन्तु उसका सबसे घातक प्रभाव मज़दूर वर्ग पर पड़ता है।' ऐसे में सामाजिक चेतना और व्यवस्थाओं का विकास होना बड़ा ही संघर्षमय और जटिल होता जा रहा है।
इस मनुष्य विरोधी समय में जनवादी साहित्यकार का दायित्व और बढ़ जाता है। जनवादी रचनाकार का एक निहित उद्देश्य, व्यावहारिकता और द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण होता है। वह संसार की प्रत्येक घटनाओं और गतिविधियों पर उसकी पैनी नजर रखता है। उसका निम्नवर्ग के प्रति झुका होने के कारण वह किसानों और मजदूरों की ऑंखों से संसार को देखकर उसे विश्लेषित करता है और इन मेहनतकश जनों के संघर्षों को अपना समझकर उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देता है। इन्हीं किसानों और मजदूरों को आधार बनाकर रचना करने वाले कवि महेन्द्र नेह का दृष्टिकोण भी जनधर्मी रहा है। इस कवि ने निम्नवर्ग के संघर्ष को अपनी रचनाओं में विविध रूपों में बाँधा है। 'इस ऍंधेरे वक्त में' कविता में जहाँ शोषणकारी ताकतों का वर्चस्व है जिसके बल पर उन्होंने मजदूर वर्ग का सबकुछ छीनकर उनका जीना दूभर कर दिया है। मरने के बाद भी यह वर्ग सपनों को आग के सुनहरी लावे की तरह जिन्दा रखने की बात करता है। परन्तु कवि स्पष्ट कहता है-''तुम छीन सकते हो/ मुझसे मेरे पसीने से/उगाए फल/ मेरे खेत, घर-परिवार/छीन सकते हो तुम/ मेरे कमाने-खाने के औजार।''
वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के इस विकट समय में महेन्द्र नेह की कविताओं में सामाजिक सरोकार भाव प्रवणता, जनसामान्य का जीवन-संघर्र्ष, आत्म-संघर्ष तथा आशा-निराशा भरा स्वर मुखरित हुआ है। आज पूँजीवाद के वर्चस्व ने अपने विभिन्न रूपों में आकर निम्नवर्ग का जीवन संत्रासों से भर दिया है। सामान्य जन की अदम्य शक्ति में गहरा विश्वास रखने वाले कवि महेन्द्र नेह शोषितों की तबाह जिन्दगी और उनके संघर्षों को आत्मसात करके अपनी गहन अनुभूतियों और विचारों को कविताओं के माध्यम से चित्रित करते हैं। उनकी कविताएँ किसान-मजदूर के अंदर फैले उदासी के घेरे को तोड़कर उनमें चेतना और जिजीविषा भरने में सक्षम हैं। पूँजीवादी शक्तियों की प्रवत्तिायों के संदर्भ में गहरे आत्म विश्लेषण से गुजरते हुए महेन्द्र नेह ने इन शक्तियों का विरोध, सामान्यजन की समस्याओं और जरूरतों को महत्तव दिया है। साथ ही वे उस विकास प्रक्रिया के प्रति अपनी असहमति प्रकट करते दिखाई देते हैं जिसने निम्नवर्ग को पतन की ओर धकेल दिया है। इसी का परिणाम है कि इन्होंने पुलिस और माफिया की बर्बरता, मुकदमों को ही नहीं झेला बल्कि मेहनतकशों की आवाज़ को बुलन्द करने के संबंध में वे जे
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