soordhas ke saundhary varnan
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सूरसागर के अन्य अनेक प्रसंगों की भाँति भ्रमरगीत प्रसंग का आधार भी भागवत पुराण है। श्रीमदभागवत के दशम स्कन्èा में श्रीÑष्ण की लीलाओं का वर्णन है। दशम स्कन्ध के अध्याय 46 और 47 में भ्रमरगीत प्रसंग आया है। सूरदास ने उसी से प्रभाव ग्रहण करके सूरसागर में भ्रमरगीत प्रसंग की अवतारणा की है। सूरदास के भ्रमरगीत की मीमांसा करने से पहले यह आवश्यक है कि हम पहले यह जान लें कि भागवत में आए भ्रमरगीत प्रसंग का स्वरूप क्या है?
न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादय:।
नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च।।
अर्थात उस परमेश्वर के न माता है, न पिता है। न स्त्राी है न पुत्राादि है। न कोर्इ अपना है, न पराया है, न उनका शरीर है और न जन्म होता है।
उद्धव का दूसरा संवाद गोपियों के साथ होता है। गोपियाँ पहले उद्धव का स्वागत करती हैं। फिर Ñष्ण के प्रेम पर व्यंग्य करती हैं। उद्धव और गोपियों का वार्तालाप जब हो रहा होता है वहीं पर कोर्इ भौंरा गोपियों को दिखलार्इ पड़ जाता है। भ्रमर के लिए यह प्रसिद्ध है कि वह पुष्पों से सच्चा प्रेम नहीं करता है। वह अपने प्रिय की परवाह नहीं करता। उधर Ñष्ण ने भी गोपियों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया था। दूसरे, भौंरे की तरह Ñष्ण भी काले थे। अत: Ñष्ण के प्रति व्यंग्य करने में भौंरे को प्रतीक मानना बड़ा सहज रहा। इस वार्तालाप में भ्रमर पर घटाकर श्रीÑष्ण के प्रति भावाभिव्यकित की गर्इ है-इसलिए इसका नाम भ्रमरगीत पड़ गया। गोपियाँ उद्धव को फटकारती हैं। कभी उलाहने देती हैं। उद्धव उन्हें Ñष्ण का सन्देश देते हैं। यह उपदेश Ñष्ण के ब्रह्रात्व का है। इसका गोपियों पर प्रभाव पड़ता है। वे पूछती हैं कि क्या Ñष्ण कभी उन्हें याद करते हैं। वे Ñष्ण की स्मृति करके भाव-विभोर हो जाती हैं और उनका विरह शान्त हो जाता है।
भागवत में शुकदेव मुनि कहते हैं-''ततस्ता: Ñष्ण संदेशव्र्यपेत विरह ज्वरा:। उद्धव पर भी गोपियों के प्रेम का प्रभाव पड़ता है।
भागवत में वर्णित भ्रमरगीत प्रसंग संक्षिप्त रूप में ही आया है पर हिन्दी के कवियों ने उससे प्रेरणा लेकर नाना भांति के भावों की निबन्धनाओं से युक्त अपने-अपने भ्रमरगीतों की रचना की है। भ्रमरगीत-प्रसंग के वर्णन की एक सुदीर्घ परम्परा ही चल पड़ी है। उनमें सूरदास अग्रगण्य हैं। सूरदास के पश्चात नन्ददास का 'भँवरगीत, परमानन्द दास के भ्रमरगीत सम्बन्धी पद, सत्यनारायण कविरत्न का 'भ्रमरदूत, हरिऔध के 'प्रियप्रवास में वर्णित भ्रमरगीत, जगन्नाथदास 'रत्नाकर का 'उद्धवशतक आदि इसी परम्परा में आते हैं। इन सबमें नवीन उदभावना, वागिदग्धता, मौलिकता, कवित्व आदि के वैशिष्टय के कारण सूरदास के भ्रमरगीत का सर्वोच्च स्थान है।
सूरदास का भ्रमरगीत भागवत से प्रभाव ग्रहण करके भी अनेक सन्दभो± में उससे भिन्न है। भ्रमरगीत की मूल कथा तो वही है जो भागवत में वर्णित है, पर सूरदास ने उसे बहुत विस्तार के साथ वर्णित किया है। उस वर्णन में सूरदास की मौलिकता सर्वत्रा परिलक्षित होती है। सूरदास का प्रतिपाध भागवतकार से भिन्न है। सूरदास के समय शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त का व्यापक प्रभाव देखकर उसके विरोध में अनेक सम्प्रदाय खड़े हो रहे थे। वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत सिद्धान्त उनमें प्रमुख था। सूरदास ने भ्रमरगीत-प्रसंग के माèयम से अद्वैतवादियों को भकित के सम्मुख दुर्बल दिखाने की भरपूर कोशिश की है। उन्हें ज्ञान-मार्ग की सीमाओं को अंकित करने का अच्छा मौका मिल गया। उन्होंने यह प्रयत्न किया कि ज्ञानमार्ग को प्रेम आदि के सामने हार खानी पड़ी। उद्धव ज्ञानमार्गी अद्वैत-मतावलम्बी व्यकित का प्रतीक है। उनको सूरदास ने ज्ञान के गर्व से युक्त चित्रित किया है। Ñष्ण उनके ज्ञान के गर्व को दूर करने के लिए ब्रज भेजना चाहते हैं। सरदास ने भ्रमरगीत के आरम्भ में इसी आशय को व्यक्त करते हुए एक पद लिखा है-
याहि और नहिं कछू उपाइ।
मेरौं प्रकट कáौं नहि बदि है, ब्रज ही देऊँ पठाइ।
अन्त में उन्हें सफलता भी मिलती है। उद्धव पर गोपियों के प्रेम का प्रभाव पड़ता है। इस तरह सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में एक विशेष उíेश्य की प्रापित की बलवती स्पृहा रही है।
हमारी दृषिट में भक्त सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का एक महत्त्वपूर्ण रहस्य है। जीव जब ब्रह्रा से वियुक्त होता है तो उससे मिलने को छटपटाता है। उस अनुभूति को अव्यक्त, गूँगे का गुड़ आदि नामों से पुकारा गया है। ब्रह्रा-वियुक्त-जीव की तड़फन का साम्य यदि कुछ हो सकता है तो अपने अतीव प्रिय के विरह से हो सकता है। सूरदास द्वारा गोपियों के अनेक मनोभावों की जो अभिव्यंजना हुर्इ है, वह एक तरह से आत्मा की परमात्मा के प्रति व्यक्त विरह-व्यथा है। यही कारण है कि वह इतनी मार्मिक है। सूर के भ्रमरगीत प्रसंग के विरहोदगारों की अनूठी मार्मिकता का यही रहस्य है। सूरदास का कवि-âदय इसमें और अधिक सहायक सिद्ध हुआ है। कवि की नूतन निर्माण क्षमता भी स्तुत्य है। राधा के समावेश से सूरदास के काव्य की रमणीयता और अधिक बढ़ गर्इ है। भागवतकार ने राèाा का नाम तक नहीं लिया, पर सूरदास ने राधा को बहुत अधिक प्रमुखता देकर प्रसंग को अधिक रसमय बना दिया है। अस्तु, सूरदास का भ्रमरगीत प्रसंग वस्तु-संयोजना की दृषिट से बहुत अधिक रोचक और कलात्मक बन गया है। उसका काव्यत्व भी उतना ही प्रशंसनीय है।