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PARAGRAPH :- 3
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इसपर लक्ष्मण हँसकर और थोड़े प्यार से कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि आप एक महान योद्धा हैं। लेकिन मुझे बार बार आप ऐसे कुल्हाड़ी दिखा रहे हैं जैसे कि आप किसी पहाड़ को फूँक मारकर उड़ा देना चाहते हैं। मैं कोई कुम्हड़े की बतिया नहीं हूँ जो तर्जनी अंगुली दिखाने से ही कुम्हला जाती है।
मैंने तो कोई भी बात ऐसी नहीं कही जिसमें अभिमान दिखता हो। फिर भी आप बिना बात के ही कुल्हाड़ी की तरह अपनी जुबान चला रहे हैं। आपके जनेऊ को देखकर लगता है कि आप एक ब्राह्मण हैं इसलिए मैंने अपने गुस्से पर काबू किया हुआ है। हमारे कुल की परंपरा है कि हम देवता, पृथ्वी, हरिजन और गाय पर वार नहीं करते हैं। इनके वध करके हम व्यर्थ ही पाप के भागी नहीं बनना चाहते हैं। आपके वचन ही इतने कड़वे हैं कि आपने व्यर्थ ही धनुष बान और कुल्हाड़ी को उठाया हुआ है। इसपर विश्वामित्र कहते हैं कि हे मुनिवर यदि इस बालक ने कुछ अनाप शनाप बोल दिया है तो कृपया कर के इसे क्षमा कर दीजिए।
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ऐसा सुनकर परशुराम ने विश्वामित्र से कहा कि यह बालक मंदबुद्धि लगता है और काल के वश में होकर अपने ही कुल का नाश करने वाला है। इसकी स्थिति उसी तरह से है जैसे सूर्यवंशी होने पर भी चंद्रमा में कलंक है। यह निपट बालक निरंकुश है, अबोध है और इसे भविष्य का भान तक नहीं है। यह तो क्षण भर में काल के गाल में समा जायेगा, फिर आप मुझे दोष मत दीजिएगा।
इसपर लक्ष्मण ने कहा कि हे मुनि आप तो अपने यश का गान करते अघा नहीं रहे हैं। आप तो अपनी बड़ाई करने में माहिर हैं। यदि फिर भी संतोष नहीं हुआ हो तो फिर से कुछ कहिए। मैं अपनी झल्लाहट को पूरी तरह नियंत्रित करने की कोशिश करूँगा। वीरों को अधैर्य शोभा नहीं देता और उनके मुँह से अपशब्द अच्छे नहीं लगते। जो वीर होते हैं वे व्यर्थ में अपनी बड़ाई नहीं करते बल्कि अपनी करनी से अपनी वीरता को सिद्ध करते हैं। वे तो कायर होते हैं जो युद्ध में शत्रु के सामने आ जाने पर अपना झूठा गुणगान करते हैं।
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लक्ष्मण के कटु वचन को सुनकर परशुराम को इतना गुस्सा आ गया कि उन्होंने अपना फरसा हाथ में ले लिया और उसे लहराते हुए बोले कि तुम तो बार बार मुझे गुस्सा दिलाकर मृत्यु को निमंत्रण दे रहे हो। यह कड़वे वचन बोलने वाला बालक वध के ही योग्य है इसलिए अब मुझे कोई दोष नहीं देना। अब तक तो बालक समझकर मैं छोड़ रहा था लेकिन लगता है कि अब इसकी मृत्यु निकट ही है।
परशुराम को क्रोधित होते हुए देखकर विश्वामित्र ने कहा कि हे मुनिवर साधु लोग तो बालक के गुण दोष की गिनती नहीं करते हैं इसलिए इसके अपराध को क्षमा कर दीजिए। परशुराम ने जवाब दिया कि यदि सामने अपराधी हो तो खर और कुल्हाड़ी में जरा सी भी करुणा नहीं होती है। लेकिन हे विश्वामित्र मैं केवल आपके शील के कारण इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। नहीं तो अभी मैं इसी कुल्हाड़ी से इसका काम तमाम कर देता और मुझे बिना किसी परिश्रम के ही अपने गुरु के कर्ज को चुकाने का मौका मिल जाता। ऐसा सुनकर विश्वामित्र मन ही मन हँसे और सोच रहे थे कि इन मुनि को सबकुछ मजाक लगता है। यह बालक फौलाद का बना हुआ और ये किसी अबोध की तरह इसे गन्ने का बना हुआ समझ रहे हैं।
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