उसका
‘पुलक प्रगट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से, इस
पंक्ति का कल्पना विस्तार
कीजिए।
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‘राष्ट्रकवि मैथिललीशरण’ द्वारा लिखित कविता ‘चारु चन्द्र की चंचल किरणें’ इन पंक्तियों का अगली दो पंक्तियों सहित तो असली भावार्थ तो इस प्रकार होगा..
पुलक प्रगट करती है धरती हरित तृणों की नोकों से....
मानों झूम रहें है तरु भी मन्द पवन के झोकों से...
भावार्थ — हरी-हरी घास लहरा रही हैं और उनकी नोकों से यह प्रकट हो रहा है कि इस सुख से वह भी रोमांचित हो रही है। सभी वृक्ष मंद-मंद वायु के झोकों के साथ धीरे-धीरे हिल रहे हैं, ऐसा लग रहा है वह भी इस हर्षोल्लास के वातावरण में मगन होकर झूम रहे हैं।
अगर हम अपनी कल्पना का विस्तार दें....
ये धरती हरी-हरी घास की लहराकर जीवन की सकारात्मकता को प्रकट कर रही है...वृक्ष, पौधे, वायु आदि भी उससे सहमत होकर अपना मौन समर्थन दे रहे हैं।
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