Hindi, asked by ashrfi, 2 months ago

Vaakh se kya abhipraya h

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Answered by RiddhimaBhalla
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Explanation:

ललघद का जीवन परिचय : ललघद का जन्म 1320 के आस-पास कश्मीर स्थित पांपोर गांव में हुआ था। ललघद को लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारीफ़ा आदि नामों से भी जाना जाता है। वे चौदहवीं सदी की एक भक्त कवयित्री थी, जो कश्मीर की शैव-भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी मानी जाती हैं। कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

 

ललघद की काव्य शैली को वाख कहा जाता है। इनकी कविताओं में चिंतन एवं भावनात्मकता का विचित्र संगम है। इन्होंने अपने वाखों के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त धार्मिक आडंबरों का खुल कर विरोध किया है। इनकी काव्य-शैली की भाषा अत्यंत सरल मानी जाती है, जिसके वजह से ललघद और भी प्रभावशाली बन जाती हैं। ललघद आधुनिक कश्मीरी भाषा का प्रमुख स्तंभ मानी जाती हैं।

वाख कविता का सारांश : प्रस्तुत वाखों का संकलन मीरा कान्त जी ने किया है। यहाँ प्रस्तुत वाखों में कवयित्री ललघद हमें यह कहना चाह रही हैं कि ईश्वर को ढूंढने के लिए मंदिर-मस्जिद में जाने से कोई फायदा नहीं होगा। ईश्वर को प्राप्त करने का केवल एक ही मार्ग है। अगर कोई सच्चे हृदय से अपने अंतःकरण की ओर झांकेगा, तो ही वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। ललघद के अनुसार आत्मज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, जो हमें आडंबरों से भरी इस समाज रूपी नदी में डूबने से बचा सकता है। उन्होंने धार्मिक तथा अन्य भेदभावों का विरोध किया है और ईश्वर को एक बताया है। उनके अनुसार सद्कर्म के द्वारा ही हम इस मायाजाल से मुक्त हो सकते हैं। कवयित्री के अनुसार, हम सद्कर्म तभी कर सकते हैं, जब हम अपने अंदर बसे अहंकार से मुक्त हो पाएंगे।

 

वाख – ललघद (Vakh)

वाख – 1

रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।

जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।

पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।

जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।।

वाख – 2

खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,

न खाकर बनेगा अहंकारी।

सम खा तभी होगा समभावी,

खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।

वाख – 3

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।

सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!

ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई।

माझी को दूँ, क्या उतराई ?

वाख – 4

थल थल में बसता है शिव ही,

भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।

ज्ञानी है तो स्वयं को जान,

यही है साहिब से पहचान।।

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