वह कौन है जो जीवन को गति देता है?
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ब्रह्मांड का जबसे जन्म हुआ है , तब से वह निरंतर तेज गति से फैल रहा है। सौरमंडल , निहारिकाएं , मंदाकिनियां सभी एक-दूसरे से दूर होती जा रही हैं। यह विस्तार बताता है कि गति जीवनदायिनी है। यह गति ब्रह्मांड के प्रत्येक कण में स्पंदन भरती है। भले ही जीवन का यह स्पंदन उस मूर्त रूप में नहीं है , जैसा कि हमारी पृथ्वी पर दिखाई देता है , लेकिन सितारों की जगमग स्थिरता की द्योतक तो नहीं है। बहुत पहले महर्षि चार्वाक ने कहा था : चरैवति-चरैवति। यानी चलें , सतत चलें। चलने में जीवन है। यह चलना सार्थक है। इसके बड़े गहरे अर्थ हैं। चलना यानी गति की एक मूर्त प्रक्रिया। स्थितप्रज्ञता में भी गति हो सकती है , लेकिन तभी जब एक जगह स्थिर रहकर भी उस वस्तु में स्पंदन हो। इसके उलट , एक चलायमान वस्तु भी स्पंदन रहित होने पर जड़ मानी जा सकती है। पेड़ अपनी जगह खड़ा रहता है , किंतु हवा के संग उसकी पत्तियां , उसकी शाखाएं जब हिलती हैं , तो जीवन के मूर्त रूप को दर्शाती हैं। नदी के दोनों छोर या पाट सदियों से एक ही जगह स्थिर होते हैं , लेकिन उसका मंद-मंद हिलोरें लेता जल बताता है कि नदी में जीवन के कितने रूप छिपे हैं। अनगिनत जलचर उसमें अपना जीवन तलाश रहे हैं। जरा अपनी पृथ्वी को ही देखें। कहीं से लगता है कि हमारा यह ग्लोब हिलडुल रहा है। लेकिन कमाल देखिए कि अपनी धुरी पर हमारी पृथ्वी हजारों किलोमीटर की गति से घूम रही है। सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रही है। ब्रह्मांड के दूसरे सभी ग्रह और तारे ऐसा ही कर रहे हैं। लेकिन कहीं कोई शोर नहीं। कोई हड़कंप नहीं। तात्पर्य यह है कि जीवन या कोई स्पंदन ऐसा होना चाहिए , जिसके होने का पता नहीं चले। जीवन यह न दर्शाए कि वह फलां-फलां जगह है और उसके होने का प्रमाण यह है कि वहां तूफान उठते हैं। वहां भूचाल आता है। यह जीवन नहीं मृत्यु है। यह सृजन नहीं , विनाश है। गति नहीं , अवगति है। बात गति में जीवन की हो रही है। कहा जाता है कि गति है , तो जीवन है। रुके रहने , थम जाने में , निष्क्रिय बने रहने में जड़ता परिलक्षित होती है। जड़ता यानी मौत। जो एक जगह जड़ हो गया , जीवन की गाड़ी उससे बहुत आगे निकल जाती है। कहते हैं कि जो जड़ है , वह पत्थर है। ऐसा कहने वाले शायद एक पत्थर के जीवन से परिचित नहीं हैं। पत्थर क्या है , लाखों-करोड़ों धूलकणों का समूहबद्ध एक ठोस पिंड। जब कुछ धूलकण पानी में भीगकर सर्वप्रथम एक नन्हा सा पिंड बनते हैं , जो नए जीवन की शुरुआत करते हैं। यह पिंड बहुधा एक ही स्थान पर पड़ा रहता है , लेकिन तमाम अन्य कणों की चादर को अपने ऊपर लपेटता रहता है। धीरे-धीरे इसमें कठोरता आती है। नरम धूलकण पत्थर का रूप लेने लगते हैं। बाद में यही पत्थर बड़ी चट्टानों में बदल जाता है। पत्थरों और चट्टानों में प्रत्यक्षत: कोई गति नहीं होती , लेकिन क्या हम यह नहीं जानते कि इन्हीं चट्टानों को फैक्ट्रियों में तोड़ कर पीसा जाता है , उन्हें सीमेंट के रूप में ढाला जाता है , जो भवन-निर्माण के लिए आधारभूत सामग्री है। गतिविहीन पत्थरों या चट्टानों में गति नहीं है , लेकिन उनकी सद्गति कितनी प्रेरक है। कौन मनुष्य है , जो पत्थर जैसा जड़ होकर भी ऐसी सद्गति को प्राप्त करने की कोशिश करता दिखाई देता है ? जड़ होकर भी जो चलायमान है , उसके समान गति का हमें अभिलाषी होना चाहिए। प्रकृति के प्रत्येक कण में ऐसी ही गति का नाद छिपा है। पत्थरों में गति है , तभी तो वे हीरे-माणिक बनते हैं। उनकी गति उनके भीतर निहित है। यह अंतर्निहित गति ही सर्वश्रेष्ठ है। ऊपर से मौन और स्थिर , लेकिन भीतर से हमेशा नए संवाद , नए सृजन , नए आविष्कारों को जन्म देने वाला मन ही श्रेयस्कर है। हम गतिमान तो हों , लेकिन गति से दूसरों के जीवन में व्यवधान न पैदा करें। हम चलें जरूर , लेकिन चलते-चलते यह ध्यान रखें कि हमारे चलने की सार्थकता क्या है ? क्या हम सिर्फ इसलिए चल रहे हैं कि हमारे पास दो पांव हैं ? क्या हमारे मन में आवेगों का आलोड़न सिर्फ इसलिए हो रहा है कि मस्तिष्क का काम ही सोचना है ? अगर यह चलना और यह सोचना निरर्थक है , विध्वंसकारी है , तो हमसे श्रेष्ठ तो उस पत्थर का जीवन है , जो सदियों एक ही स्थान पर पड़ा रहता है। कम से कम वह किसी का अहित तो नहीं करता। गत्यात्मकता ऊर्जा देती है। संगीत , ताल , लय पैदा करती है , तो वह स्वयं हमारे लिए , हमारे समाज और अखिल विश्व के लिए हितकर है। ऐसी गति उत्थान , उत्कर्ष और उड़ान की हेतु है। लेकिन जब इस गति में पतन हो , तो वह गति नहीं , अधोगति है। ऐसी गति विनाश की परिचायक है। सकारात्मक उद्देश्य ही गति और जीवन को सार्थक बनाते हैं , प्रत्येक नया कदम उठाते समय हमें इसका ध्यान रखना चाहिए।