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अगर मै न्याय होता/होती
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न्याय में देर ही अंधेर
एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में उच्च न्यायालय एक मुकदमें का निर्णय सुनाने में लगभग चार वर्ष से अधिक का समय लेते हैं. उच्च न्यायालय से निम्न स्तरीय अदालतों का हाल तो इससे कही बुरा हैं. जिला कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक चलने वाले एक मुकदमें का अंतिम फैसला 7 से 10 साल में आता हैं. राजस्थान, इलाहाबाद, कर्नाटक और कलकत्ता हाईकोर्ट देश के सबसे अधिक समय लेने वाले कोर्ट बन चुके हैं. वही निचली अदालतों की धीमी कार्यवाहियों वाले राज्यों की बात करे तो इसके गुजरात पहले पायदान पर हैं.
न्यायालय की कार्यप्रणाली को लेकर एक संस्था ने शोध किया जिसके नतीजे हैरतअंगेज करने वाले हैं. इस शोध में यह बात सामने आई कि किसी मुकदमें में लगने वाले कुल समय का ५५ प्रतिशत हिस्सा मात्र तारीख और समन में व्यय हो जाता हैं शेष मात्र ४५ प्रतिशत समय में ही मुकदमें की सुनवाई होती हैं.
न्याय व्यवस्था में सुधारों की आवश्यकता
न्याय के बारे में एक पुरानी अंग्रेजी उक्ति है- ‘न्याय में देरी करना न्याय को नकारना है और न्याय में जल्दबाजी करना न्याय को दफनाना है. यदि इस कहावत को हम भारतीय न्याय व्यवस्था के परिपेक्ष्य में देखे तो पाएगे कि इसका पहला भाग पुर्णतः सत्य प्रतीत होता हैं. सिमित संख्या में हमारे जज और मजिस्ट्रेट मुकदमों के बोझ तले दबे प्रतीत होते हैं. एक मामूली विवाद कई सालों तक चलता रहता है तथा पीड़ित को दशकों तक न्याय का इतजार करना पड़ता हैं. यही वजह है कि लोगों में न्याय के प्रति गहरे असंतोष के भाव हैं वे अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध इसलिए कोर्ट नहीं जाते क्योंकि उनके यह भरोसा नहीं रहा कि न्याय उसके लिए मददगार होगा।