या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ ।
ज्यों-ज्यों बूडै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ ।।
घरु-घरु डोलत दीन द्वै, जुन-जनु जाचतु जाइ ।
दिर्यै लोभ-चसमा चखनु, लघु पुनि बड़ों लखाइ ।।
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ye to poem he to iska kya karna he?
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कठिन शब्दार्थ- या = इस। अनुरागी = प्रेमी, रँगे जाने की इच्छा वाला। चित्त = मन। गति = स्वभावे, व्यवहार। समुझै = समझ पाना। कोइ = कोई भी। ज्यों-ज्यों = जैसे-जैसे। बूड़े = डूबता है, इँगता है। स्याम रंग = काला रंग, श्रीकृष्ण से प्रेम। त्यों-त्यों = उतना ही। उज्जलु = उजला, स्वच्छ। होय = होता जाता है।
संदर्भ तथा प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि बिहारी लाल के दोहों से उधृत है। कवि इस दोहे में प्रेमी मन के विचित्र व्यवहार को प्रस्तुत कर रहा है। व्याख्या-कवि बिहारी कहते हैं-श्रीकृष्ण के प्रेम रंग में रंगे हुए इस मन का व्यवहार बड़ा विचित्र है। यह जितना-जितना श्याम रंग में डूबता है, उतना-उतना ही उज्ज्वल होता चला जाता है।
विशेष- (i) कवि ने विरोधाभास तथा श्लेष अलंकारों का उपयोग करते हुए अपने उक्ति-चमत्कार का परिचय कराया है। (ii) चित्त अनुरागी अर्थात् रँगे जाने का इच्छुक है। प्रेमी है। इसके व्यवहार की विविधता यह है कि इसे ज्यों-ज्यों श्याम (काला) रंग में डुबोया जाता है, यह उतना ही काला होने के बजाय उजला होता जाता है। (iii) विरोधी कथन का भाव यह है कि मन को जितना श्रीकृष्ण की प्रीति में लगाया जाता है वह उतना ही निर्मल, अवगुणों से मुक्त होता चला जाता है। (iv) कवि का संदेश है कि मन को प्रेम में डुबोना है तो सांसारिक वस्तुओं में नहीं श्याम के श्याम रंग में डुबाओ। इसी में कल्याण (v) दोहे में “ज्यों ज्यों ………………….. उज्जलु होय॥ में विरोधाभास अलंकार तथा ‘अनुरागी’ और ‘स्याम रँग’ में श्लेष अलंकार है।
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