आदिवासी लोकगीतों के बारे में आप क्या जानते हैं?
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आदिवासी लोक गीत-संगीत में मौजूदा संघर्ष के स्वर
हुल दिवस के मौके पर पढ़ें सुरेश जगन्नाथम का विशेष लेख। इसमें वह बता रहे हैं नियमगिरि पहाड़ियों में रहने वाले डोंगरिया कोंद व कुटिया कोंद समुदाय के लोगों द्वारा चलाए जा रहे आदोलन में उपयोग किए जाने वाले लोकगीतों के बारे में। उनके मुताबिक, यह वही परंपरा है जिसकी मुखर अभिव्यक्ति संथाल हुल से लेकर उलगुलान तक में होती है
आदिवासियों का इतिहास संघर्षों का इतिहास रहा है। यह बात अलग है कि भारतीय इतिहासकारों ने उनके इतिहास को तवज्जो नहीं दी। मसलन, संथाल हुल जिसकी उद्घोषणा 30 जून, 1855 को सिदो-कान्हु ने की थी। यह एक तरह से दिकुओं द्वारा जल-जंगल-जमीन पर कब्जे का सशस्त्र विरोध था जिसमें व्यापक जन भागीदारी थी। करीब 165 साल बाद आज के दौर में भी आदिवासियों के समक्ष कमोबेश उसी तरह के सवाल हैं और वे संघर्ष करने को मजबूर हैं। एक उदाहरण नियमगिरि पहाड़ियों में चल रहे विरोध का है।
यह सर्वविदित है कि उड़ीसा के कोरापुट-रायगढा-कालाहांडी के विशेषकर नियमगिरि पहाड़ियों में सर्वोत्तम बाॅक्साइट का भंडार है। इसी बाॅक्साइट के खनन के लिये वेदांता कंपनी निरंतर प्रयास कर रही है। इन्हीं पहाड़ियों पर सदियों से निवास करती एक सभ्यता है, संस्कृति है। इनकी अपनी समृद्ध भाषा है। गीत-संगीत है। अपने देवी-देवता हैं। कुल मिलाकर एक संपूर्ण आदिवासी जीवन है। पहाड़ियों के खनन की प्रक्रिया में नष्ट होते जीवन को बचाए रखने के लिए वहां के मूल निवासी डोंगरिया कोंद व कुटिया कोंद समुदायों के द्वारा विगत दो दशकों से वेदांता के विरुद्ध आंदोलन जारी है।
आन्दोलन के गीत
इस आंदोलन को व्यापक रूप से आगे बढ़ाने के लिये मौखिक परंपरा को एक हथियार के रूप में उपयोग किया गया है। कभी अपने मनोरंजन, या परंपरागत जात्रा (पर्व-त्योहार) तथा सामूहिक समारोहों में अपने आनंद के लिये गाए जाने वाले गीतों ने इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभायी है। यह वही परंपरा है जिसकी मुखर अभिव्यक्ति संथाल हुल से लेकर बिरसा मुंडा के उलगुलान तक में होती है। प्रतिरोध के इन गीतों के माध्यम से कहीं उनकी व्यथा व्यक्त होती दिखती है और लोगों में चेतना जगती है।
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