भारत में एड्स की स्थिति पर निबन्ध | Write an Essay on Situation of AIDS in India in Hindi
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भारतीय धार्मिक आख्यान साक्षी है कि ‘एड्स’ नामक रोग का उल्लेख प्रच्छन्न रूप से अनेक स्थलों पर आ चुका है । महाभारतकालीन एक साक्ष्य प्राप्त होता है, जिसके आधार पर कहा गया है कि भीष्म पितामह के सौतेले भ्राता विचित्रवीर्य की मृत्यु का कारण एड्स ही था ।
स्वभावत: विचित्रवीर्य उद्दाम काम-पिपासु थे । वे अहर्निश यौन-क्रियाओं में संलिप्त रहते थे । महाकवि कालिदास की कृति ‘रघुवंश’ में राजा अग्निवर्मा का जीवन-प्रसंग आता है । वे रघुवंश के अंतिम शासक थे । अग्निवर्मा यौनाकांक्षाओं के वाहक थे । अधिकांश समय काम-क्रीड़ा में रत रहने के कारण वे यौन रोग के शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे ।
भारतीय परंपरा के समानांतर ‘बाइबिल’ में भी कतिपय ऐसे दृष्टांत मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि एड्स का अस्तित्व प्रच्छन्न रूप से इस काल में भी था । ‘बाइबिल’ के ‘जेनेसिस’ में ‘सोडोम’ और ‘गोमोरोह’ के संबंध में यह वर्णित है कि कैसे वहाँ के निवासियों की अतिकामुक गतिविधियों से खिन्न और कुद्ध होकर परमेश्वर ने दोनों नगरों को नष्ट कर दिया था ।
ईसा से ३२०० वर्ष पूर्व के एक प्रलेख से प्राप्त कुछ उद्धरणों से यह सुस्पष्ट हो जाता है कि कैसे विषम लैंगिक काम-संबंधों से भयानक यौन रोग फैला था और अब, जब सुदूर अतीत से परे होकर वस्तु-स्थिति को समंझने का प्रयास करें तो ज्ञात होता है कि ५ वर्षों में भारत विश्व का सबसे बड़ा एड्स ग्रस्त देश बन जाएगा ।
वर्तमान में विश्व में एड्स ग्रस्त व्यक्तियों की सर्वाधिक संख्या अफ्रीका में है । इस बात की भी संभावना है कि शेष विश्व की तुलना में भारत में एड्स के अधिक रोगी हों । इंजेफ्यान के रूप में लिये जानेवाले मादक द्रव्यों के बढ़ते इस्तेमाल को रोकने के लिए अगर तत्काल कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया तो आने वाले वर्षों में भारत का हर दसवाँ व्यक्ति ‘एड्स’ की चपेट में आ जाएगा ।
इन इंजेआन के इस्तेमाल से ‘एड्स’ का खतरा बढ़ता है । मादक द्रव्यों के प्रयोग में लाई जानेवाली सुइयाँ ‘एड्स’ विषाणु एच.आइ.वी. को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । जब कोई नशेड़ी एड्स से संक्रमित नशेड़ी द्वारा प्रयोग में लाई गई सुई से मादक द्रव्य लेता है तब वह भी एड्स का शिकार बन जाता है । इंजेशन से मादक-द्रव्यों का प्रयोग करनेवाले नशेड़ियों में से ५० से ६० प्रतिशत एड्स से ग्रस्त हो चुके हैं ।
एड्स को फैलने से रोकने के लिए ‘Injectable drurs’ के प्रयोग पर तत्काल रोक लगाना अत्यावश्यक द्येंरौ स्थानैं है । मादक द्रव्य लेने से शरीर वि रोग-प्रतिरक्षण क्षमता घट जाती है, जिससे व्यक्ति एड्स और तपेदिक जैसे रोगों से ग्रस्त हो जाता है; इंजेआन से लिये जाने वाले मादक द्रव्यों में ब्राउन शुगर, पोथाडिमिन; मार्फिन, फोर्टविन और फर्नागम आदि हैं ।
देश में इंजेफ्यान से लिये जानेवाले मादक द्रव्यों के अलावा एल्कोहल, अफीम, गाँजा, चरस, स्मैक, हेरोइन, एलएनडी, मेंड़ेक्स और कंपोज-जैसे मुँह से लिये जानेवाले पदार्थो का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होता है । इन द्रव्यों की अत्यधिक मात्रा घातक होती है और इसकी परिणति मृत्यु होती है ।
भारत में सन् १९८५ से १९९४ के मध्य एड्स-विषाणु के संक्रमण में निरंतर वृद्धि हुई है । वस्तुत: भारत में संक्रमण का सबसे बड़ा कारण एक से अधिक लोगों के साथ यौन-संबंध है; जबकि पूर्वोत्तर राज्यों में इसका मुख्य कारण मादक पदार्थों का इंजेक्यान लेना है ।
अब तक एच.आइ.वी. संक्रमण के सर्वाधिक प्रकरण महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मणिपुर से प्रकाश में आए हैं । इसका एक कारण कंडोम का प्रयोग करने से लोगों में हिचकिचाहट और संकोच भी है । ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्’ के मार्गदर्शन में सर १९८६ में मध्यकाल में भोपाल, इंदौर और जबलपुर में ‘एच.आइ.वी.’ सर्वे सेंटर की स्थापना की गई ।
एन.एसी.ओ. नई दिल्ली के दिशा-निर्देशों के अनुसार, विश्व बैंक से सहायता प्राप्त ‘राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम’ योजना-वर्ष १९९२ की अंतिम त्रयमासिकी से जून १९९७ तक मध्य प्रदेश में लागू किया गया । इसके अंतर्गत ‘राज्य एड्स सेल’ बनाकर इस रोग की रोकथाम के लिए कार्यक्रम चलाए गए ।
वैज्ञानिक दृष्टि से अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी का काल अतीव महत्त्वपूर्ण है । इसी काल में विश्व के विज्ञानियों ने ‘जीवाणु’ और ‘विषाणु’ की खोज की । इस दृष्टि से रूस के विज्ञानियों ने प्रतिमान-स्थापना की । रूस के वनस्पतिविद् इवानोवस्की ने सन् १८९२ में तंबाकू की पत्ती पर वैज्ञानिक क्रिया करते समय उस पर होनेवाले रोग की जानकारी प्राप्त की ।
रोग का नाम था-मोजैक । इवानोवस्की ने यह सिद्ध किया कि ‘मोजैक रोग’ एक प्रकार के सूक्ष्मजीवी द्वारा लगता है । सन् १८१८ में एम.डब्लू बेजेरिक ने. उस सूक्ष्मजीवी का नाम ‘विषाणु’ पा १५ दिया । इसके बाद तो विषाणु की खोज के लिए अनुसंधान और विकास-कार्यक्रम स्रग्रत की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा आरंभ हो गई ।
परिणामस्वरूप तरह-तरह के विषाणु अस्तित्व में आते गए । जैसे- ‘मोजैक विषाणु’ बैक्टिरियो फेज विषाणु ‘साइनोफेज विषाणु’ रेबीज विषाणु इत्यादि । इसी क्रम में दो प्रकार के ऐसे विषाणु प्रकाश में आए हैं, जो प्राणघातक हैं । वे हैं- एच.आइ.वी. और एच.आइ.वी. ये विषाणु संक्रमण क्रिया द्वारा ‘एड्स’ नामक घातक रोग को जन्म देते हैं ।
यौन-रोग, रति-रोग, सुजाक (गोनोरिया), आतशक (सिफलिस), रतिज व्रणाम (शेंकरायड) लिंफोग्रेनुलोमा विनीरियम इत्यादि नामों से तो यह रोग अभिहित था, किंतु ‘एड्स’ रोग के नाम से नहीं; यद्यपि उल्लिखित यौन-रोगियों में वही लक्षण पाए गए थे, जो एक एड्स-रोग की पहचान होती है ।
इतिहासविद् और विज्ञानी १९८२ के पूर्व तक उस ‘रहस्यमय रोग’ के नाम से किंचित परिचित नहीं थे; यद्यपि उसके कुप्रभाव से बहुत अधिक संख्या में लोग मरने लगे । इस रोग की भयावहता और नरसंहार की प्रवृत्ति को देखते-समझते हुए विश्व के वैज्ञानिक अपने अनुसंधान के प्रति पूर्णत: सतर्क हो गए ।