Hindi, asked by ops94, 1 year ago

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Answered by darshan0709196p2a6f9
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मानव समाज आज उस मुकाम पर पहुंच चुका है, जहां दुनिया जाइरोस्कोप जैसी तेजी से बदल रही है। इसके बावजूद मनुष्य के स्वभाव में, उसकी सामाजिकता में इतना कम परिवर्तन हो सका है कि हम यह दावा नहीं कर सकते कि विज्ञान मनुष्य को अच्छा मनुष्य भी बनाता है। ‘भगवान सिंह’

विकास के क्रम में मनुष्य ने जिन उपादानों को विकसित किया था आधुनिक औद्योगिक विकास ने पिछली तीन शताब्दियों में न सबको समेट कर एक ऐसी दिशा दे दी जिसमें कि सिर्फ शक्तिशाली मनुष्य ही सुकून से रह सकता है। कहा जाता है कि यूनान के ‘स्वर्णकाल’ में प्रत्येक यूनानी नागरिक के ‘स्वामित्व’ में करीब 18 गुलाम थे। इससे उस समाज की वास्तविकता की कल्पना की जा सकती है। मानव सभ्यता का इतिहास और विस्थापन संभवतः समानांतर धाराएं हैं। पहला विस्थापन कब हुआ, यह जान पाना तो असंभव है परंतु घुमंतु समुदाय का एक जगह ठहर जाना, वहां कुछ वर्ष रहकर यदि उन्हें प्राकृतिक अथवा बलात् उस जगह को छोड़ना पड़े तो क्या उसे विस्थापन माना जा सकता है? अनादिकाल से विभिन्न सभ्यताओं के अंतर्गत अनेक नगरों और भौतिक संपदाओं के निर्माण ने संभवतः विस्थापन की नींव रखी होगी। विस्थापन की नींव में मूलतः भौतिक विकास ही रहा है और भारतीय समाज की इसके प्रति वितृष्णा ऋग्वेद काल के बाद प्रकट होती है।

इस संबंध में भगवान सिंह ने लिखा है, प्राचीन भारत में भौतिक विकास को लेकर एक कुंठा उत्पन्न हो गई थी। ऋग्वेद के बाद का चिंतन इस कुंठा का ही चिंतन है, जिसमें यह चेतना व्यापक रूप से फैली कि ज्ञान से, भौतिक प्रगति से, सुख सुविधा के समान जुटाने से कुछ नहीं होता। अपने समय को देखते हुए असाधारण भौतिक प्रगति करने वाले समाज ने मनुष्य के रूप में अपना पतन न किया हो तो उत्थान भी नहीं किया। विकास की सीढ़ी चढ़ते मनुष्य ने अपने सामने आई हर वस्तु को अपना दुश्मन समझा और थोड़े से लोगों के आराम व मनोरंजन के निमित्त उसने जंगलों पहाड़ों को नष्ट किया, जीव-जंतुओं का संहार किया। धरती, आकाश व समुद्र तक को इस हद तक प्रदूषित कर डाला है कि अब उनके पूर्व स्थिति में आने की संभावनाएं नित्य प्रति धूमिल होती जा रही है। विकास की इस अंधी दौड़ में हमने भस्मासुर को अपना लिया और अपने ही विनाश में लग गए।

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