Art, asked by mamtanegi772, 7 months ago

क्या 'मातृदेवी' एक मूर्ति है ? आलोचनात्मक वर्णन कीजिए ​

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Answered by iparth4133
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मोहनजोदड़ो से प्राप्त इसी काल की काँसे से बनी नृत्य करती लड़की की प्रतिमा संभवत: हड़प्पा काल के धातु के कार्यों के महानतम अवशेषों में से एक है । इस विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा में एक नर्तकी को नृत्यक के बाद मानो खड़े होकर आराम करते दर्शाया गया है । इस नर्तकी का दाहिना हाथ उसके कूल्हें पर है जबकि बायाँ हाथ लटकते हुए दर्शाया गया है । इसके बाएँ हाथ में संभवत: हड्डी या हाथी दांत से बनी अनेक चूडि़यां हैं जिनमें से कुछ इसके दाहिने हाथ में भी हैं ।

यह लघु प्रतिमा उस काल के धातु शिल्पियों की एक उत्कृष्ट कलाकृति है । इन शिल्पियों को सीर पेरदयू या तरल धातु प्रक्रिया द्वारा काँसे को ढालना आता था ।

मातृ देवी की बृहदाकार प्रतिमा का प्रतिनिधित्व करती मृण्मूर्ति की यह प्रतिमा मोहनजोदड़ो में मिली है और सबसे बेहतरीन रूप से संरक्षित प्रतिमाओं में से एक है । देवी के केशविन्यास के दोनों ओर संलग्न चौड़े पल्लोंम के अभिप्राय को ठीक से समझना कठिन है । देवी की पूजा उर्वरता और समृद्धि‍ प्रदान करने के लिए की जाती थी । पारंपरिक रूप से भारत के 80 प्रतिशत से अधिक निवासी खेतिहर हैं जो स्वाभाविक रूप से उर्वरता और समृद्धि‍ प्रदान करने वाले देवी-देवताओं को पूजते हैं। मूर्ति की चपटी नाक और शरीर पर रखा गया अलंकरण जो कि मूर्ति से चिपका प्रतीत होता है तथा कला में आम लोक प्रभाव अत्यंत रोचक हैं । उद् घोषणा मोहनजोदड़ो का शिल्पकार अपनी कला में दक्ष होने के कारण मूर्ति को वास्तविक और शैलीगत, दोनों तरह से बना सकता था ।

 

कांसे की नृत्य करती हुई मूर्ति मोहन जोदड़ो पाकिस्तान

वृषभ कांस्य मोहन जोदड़ो पाकिस्तान

मृण्मूर्ति से बनी वृषभ की प्रतिमा शिल्पकार द्वारा पशु की शरीर-रचना के विशिष्ट अध्ययन की भावपूर्ण उद् घोषणा करता एक सशक्त निरूपण है । वृषभ की इस प्रतिमा में उसका सिर दाहिनी ओर मुड़ा हुआ है और उसकी गर्दन के इर्द-गिर्द एक रस्सी है ।

स्वाभाविक रूप से अपने कूल्हों पर बैठा फल कुतरता हुआ गिलहरियों का जोड़ा दिलचस्प है ।

 

मोहनजोदड़ो से इसी काल, यानी 2500 ईसा पूर्व, का पशु आकार का एक खिलौना मिला है जिसका सिर हिलता है। उत्खनन के दौरान मिली वस्तुओं में यह सबसे दिलचस्प है जो कि यह दिखाता है कि बच्चों का मन ऐसे खिलौनों से कैसे बहलाया जाता था जिनका सिर धागे की मदद से हिलता था ।

उत्खनन में विशाल संख्या में मुहरें मिली हैं। सेलखड़ी, मृण्मूर्ति और काँसे की बनी ये मुहरें विभिन्न आकार और आकृतियों की हैं । आमतौर पर ये आयताकार, कुछ गोलाकार और कुछ बेलनाकार हैं। सभी मुहरों पर मानव या पशु आकृति बनी है और साथ ही चित्रलिपि में ऊपर की ओर एक अभिलेख है जिसका अभी तक अर्थ नहीं निकाला जा सका है।

हिलते हुए सिर का पशु खिलौना, टेराकोटा, मोहन जोदड़ो, पाकिस्तान

मुद्रा पशुपति शिला, मोहन जोदड़ो, पाकिस्तान

इस मुहर में आसीन मुद्रा में एक योगी को दर्शाया गया है जो संभवत: शिव पशुपति हैं । इस योगी के इर्द-गिर्द चार पशु-गैंडा, भैंसा, एक हाथी और बाघ है । सिंहासन के नीचे दो मृग दर्शाए गए हैं । पशुपति का अर्थ है पशुओं का स्वामी । यह मुहर संभवत: हड़प्पा काल के धर्म पर प्रकाश डाल सकती है । अधिकांश मुहरों के पीछे एक दस्तात है जिससे होकर एक छेद जाता है । माना जाता है कि विभिन्न शिल्पीसंध या दुकानदार तथा व्यापारी मुद्रांकित करने के लिए इनका प्रयोग करते थे । प्रयोग न होने पर इन्हें गले या बांह पर ताबीज़ जैसे पहना जा सकता था ।

पशुओं के चित्रण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है अत्यंत बलशाली और शक्तिशाली ककुद् वाला एक वृषभ । इतने प्राचीन काल की यह एक अत्यंत कलात्मक उपलब्धि है । वृषभ के शरीर के मांसल हिस्सेको अत्यंत वास्तविक तरीके से दर्शाया गया है ।

अनेक लघु मुहरों पर बारीक कारीगरी और कलात्मकता देखने को मिलती है जो कि मूर्तिकारों के कलात्मक कौशल का अदभुत उदाहरण है । कला के ये बेहतरीन नमूने अचानक ही नहीं बने होंगे और स्पष्ट तौर पर एक लंबी परंपरा की ओर संकेत करते हैं ।

 

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो अब पश्चिम पाकिस्तान में हैं । इस संस्कृति के लगभग सौ स्थल भारत में मिले हैं जिनमें से अब तक कुछ में उत्खनन किया जा चुका है जिससे यह पता चलता है कि सिंधु घाटी संस्कृति विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई थी ।

सिंधु घाटी सभ्यता का अंत लगभग 1500 ईसा पूर्व में हुआ । इसका कारण संभवत: भारत पर आर्यन आक्रमण रहा होगा । ताम्र संचय संस्कृति और मृत्तिकाशिल्प के कुछ पुरावशेषों के अलावा आगामी 1000 वर्षों में प्रतिमा विधायक कला के कोई भी अवशेष नहीं मिले हैं । इसका कारण संभवत: लकड़ी जैसी नष्ट होने वाली सामग्री हो सकती है जिसका प्रयोग ऐसी कलात्मक आकृतियां बनाने के लिए होता था जो समय की मार नहीं झेल सकती थीं । समतल सतह पर नक्काशी जैसा कि भरहुत और सांची में देखने को मिलता है, लकड़ी या हाथी दांत पर की गई नक्काशी की याद दिलाता है । लेकिन 1000 वर्षों का यह मध्यस्थ काल महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दौरान भारत के मूल निवासी, द्रविणों द्वारा प्रजननशक्ति की पूजा और आर्यों के अनुष्ठान और धार्मिक तत्वों के बीच संश्लेषण हुआ । छठी शताब्दी ईसा पूर्व में प्राचीनतम धर्मग्रंथों, वेदों तथा महाकाव्यों में निहित भारतीय जीवन और चिंतन पद्धति का विकास हुआ । इसी शताब्दी में आर्य देवताओं का उनसे भी प्राचीन बौद्ध व उसके समसामयिक जैन धर्म में विलय होकर भारत में आविर्भाव हुआ । इन धर्मों में आपस में अनेक समानताएं थीं और ये हिंदू दर्शन में साधु मार्ग को प्रतिनिधित्व करते हैं । गौतम बुद्ध और महावीर की सीखों का आम लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा । इन तीन धर्मों की अवधारणा के बाद में मूर्तिकला में अभिव्यक्त किया गया ।

ये मूर्तियां मूलत: मंदिरों अथवा धार्मिक इमारतों का हिस्सा थीं ।

 

 

 

 

Answered by jassisinghiq
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Answer:

हा, 'मातृदेवी' एक मूर्ति है।

Explanation:

'मातृदेवी' की यह मूर्ति मोहनजोदड़ो में मिली है, और सबसे बेहतरीन रूप और प्रतिमाओं में से एक है। और यह मूर्ति बृहदाकार प्रतिमा का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह मूर्ति इसी काल की काँसे से बनी है, और यह नृत्य करती लड़की की प्रतिमा है। देवी के केशविन्यास के दोनों ओर संलग्न चौड़े पल्लोंम को ठीक से समझना कठिन है । और इस मूर्ति में चपटी नाक और शरीर पर रखा गया अलंकरण जो कि मूर्ति से चिपका हुआ प्रतीत होता है। और मातृदेवी की पूजा समृद्धि‍ और उर्वरता प्रदान करने के लिए की जाती थी।

अतः सही उत्तर है, हा, 'मातृदेवी' एक मूर्ति है।

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