मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र-चित्रण कीजिए ।
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भामाशाह (1542 - 1600) बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमन्त्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में आप सदैव अग्रणी रहे। मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए भामाशाह नाम इतिहास में अमर है।[दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में वर्तमान पाली जिले के सादड़ी गांव में 29 अप्रैल 1547 को कावेडिया परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम भारमल था।वो रणथंभौर के किलेदार थे भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी। यह सहयोग तब दिया जब महाराणा प्रताप अपना अस्तित्व बनाए रखने के प्रयास में निराश होकर परिवार सहित पहाड़ियों में छिपते भटक रहे थे। मेवाड़ के अस्मिता की रक्षा के लिए दिल्ली गद्दी का प्रलोभन भी ठुकरा दिया। महाराणा प्रताप को दी गई उनकी हरसम्भव सहायता ने मेवाड़ के आत्म सम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी।
भामाशाह अपनी दानवीरता के कारण इतिहास में अमर हो गए। भामाशाह के सहयोग ने ही महाराणा प्रताप को जहाँ संघर्ष की दिशा दी, वहीं मेवाड़ को भी आत्मसम्मान दिया। कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी। तब भामाशाह की दानशीलता के प्रसंग आसपास के इलाकों में बड़े उत्साह के साथ सुने और सुनाए जाते थे।
हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित महाराणा प्रताप के लिए उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति में इतना धन दान दिया था कि जिससे २५००० सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित करा और फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया।
वह बेमिसाल दानवीर एवं त्यागी पुरुष थे। आत्मसम्मान और त्याग की यही भावना उनके स्वदेश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने वाले देश-भक्त के रूप में शिखर पर स्थापित कर देती है। धन अर्पित करने वाले किसी भी दानदाता को दानवीर भामाशाह कहकर उसका स्मरण-वंदन किया जाता है। उनकी दानशीलता के चर्चे उस दौर में आसपास बड़े उत्साह, प्रेरणा के संग सुने-सुनाए जाते थे। उनके लिए पंक्तियाँ कही गई हैं-
वह धन्य देश की माटी है, जिसमें भामा सा लाल पला।
उस दानवीर की यश गाथा को, मेट सका क्या काल भला॥
ऐसी विरल ईमानदारी एंव स्वामी भक्ति के फलस्वरूप भामाशाह के बाद उनके पुत्र जीवाशाह को महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने भी प्रधान पद पर बनाये रखा । जीवाशाह के उपरांत उनके पुत्र अक्षयराज को अमर सिंह के पुत्र कर्ण सिंह ने प्रधान पद पर बनाये रखा ।इस तरह एक ही परिवार की तीन पीढ़ियो ने मेवाड़ मे प्रधान पद पर स्वामीभक्ती एंव ईमानदारी से कार्य कर जैन धर्म का मान बढ़ाया । महाराणा स्वरूप सिंह एंव फतेह सिंह ने इस परिवार के लिए सम्मान स्वरुप दो बार राजाज्ञाएँ निकाली कि इस परिवार के मुख्य वंशधर का सामूहिक भोज के आरंभ होने के पूर्व तिलक किया जाये । जैन श्रेष्टी भामाशाह की भव्य हवेली चित्तौड़गढ तोपखाना के पास आज जीर्ण शीर्ण अवस्था मे है ।
मेवाड़-मुकुट खण्डकाव्य के आधार पर भामाशाह का चरित्र-चित्रण कीजिए।
भामाशाह का चरित्र चित्रण...
- भामाशाह का नाम इतिहास में अपनी दानशीलता, वीरता और मातृभूमि के प्रति आगध प्रेम के लिये प्रसिद्ध है।
- भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ में 29 अप्रैल 1547 को जैन धर्म के ओसवाल परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भारमल था। वह रणथंबौर के एक किलदार थे।
- भामाशाह महाराणा प्रताप के परम मित्र, सहयोगी और महत्वपूर्ण विश्वासपात्रों में से एक थे।
- जब महाराणा प्रताप अपनी मातृभूमि मेवाड़ की रक्षा हेतु अकबर से संघर्षरत थे तो और राज्य वैभव आदि सहित उनका सर्वस्व चला गया था तथा वे जंगलों में भटक रहे थे तो भामाशाह ने एक सच्चे मित्र और देशभक्त का कर्तव्य निभाते हुये महाराणा प्रताप यथासंभव, यथाशक्ति सहायता दी। भामाशाह ने महाराणा प्रताप अपनी मातृभूमि के सम्मान को वापस पाने के लक्ष्य को अपना लक्ष्य बना लिया और अपनी सारी धन-संपत्ति मातृभूमि की सेवा और रक्षा में न्यौछावर कर दी।
- उनकी सहायता के कारण ही महाराणा प्रताप अपने संघर्ष को एक नया जीवन प्रदान कर सके।
- भामाशाह ने शत्रुओं द्वारा दिये गये हर लालच को ठुकराकर महाराणा प्रताप के प्रति अपनी निष्ठा को निभाने में कोई कसर नही छोड़ी थी।
- भामाशाह बहुत बड़े दानवीर, बेमिसाल त्यागी पुरुष और अटूट देशभक्त थे। आज भी राजस्थान में उनकी दानवीरता के किस्से सुनाई देते हैं। उनके दानशीलता और वीरता के किस्सों से एक अनोखी प्रेरणा मिलती है और वे लोगों के लिये एक मिसाल बन गये हैं।
- भामाशाह की तीन पीढ़ियों ने निरन्तर महाराणा प्रताप की तीन पीढ़ियों की सेवा की। आज भी भामाशाह के वंशज उदयपुर में रहते हैं।
- 52 वर्ष की आयु में भामाशाह ने इस जीवन को त्याग दिया था। उदयपुर में भामाशाह की समाधि अन्य राजपूत राजाओं के साथ बनी हुई है।
#SPJ3
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राजस्थान का कौनसा निवासी व्यापारी दूसरे भामाशाह के नाम से प्रसिद्ध है?
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हल्दीघाटी के मैदान में युद्ध प्रारम्भ हुआ
(अ) 18 जून 1576 को
(य) 18 जून 1577 को
(स) 18 [न 1578 को
(द) 18 जून 1579 को
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