महो अर्णः ................. प्रचेतयति।
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साधना के मार्ग पर जो अन्तः से प्रसूत ज्ञान होता है वही हमारा मार्ग दर्शक बन उस महती सत्ता का परिचय कराने वाला होता है | जो लोग किसी मार्ग दर्शक को स्वीकार नहीं कर पाते ,ऐसा प्रतीत होता है ,उनकी स्थिति को भली प्रकार बताया गया है |
गुरु शिष्य परंपरा में गुरु ,शिष्य की पदे पदे शंका का समाधान करता जाता है | लक्ष्य की ओर इशारा कर उसे अपने हाल पर छोड़ देता है | लेकिन जो पूर्व जन्मो के अभ्यास वशात् स्वतः स्फूर्त साधना में लग जाते है उनको वह महती सत्ता स्वयं सहायक बनती है |
यहाँ कहा गया कि साधक में निश्चय ही वह सरस्वती जाग्रत हो जाती है ,सरस्वती स्वयं के गुह्य प्रतीकों से उस साधक को चेताती रहती है | साधना का मार्ग ठीक है या नहीं उसको बताती रहती है | अंतर्जगत में सरस्वती ही उस समुद्र से परिचित कराती है जो महान है ,जो अतिमानसिक भूमि पर अवस्थित है | यहाँ उसको महः अर्ण कहा है | उस परम सत्ता का बोध कराना भी कह सकते है |
अन्य परिवर्तन यह कराती है कि समस्त प्रकार के कर्मो ओर भावों को जिसकी बुद्धियाँ अंधकारमयी थी अब प्रकाशित कर देती है | अब ठीक ठीक कर्म की ओर गति होने लगती है | साधारण व्यक्तियों के भाव ओर कर्म आदि तम ओर रज से ग्रस्त होते है | जिसके कारण व्यक्ति मूढ़ बना रहता है | किंकर्तव्यमूढ़ की स्थिति बनी रहती है | परन्तु साधक में सरस्वती की कृपा बरस कर समस्त शुभ कर्मो के मार्ग को प्रदीप्त कर निहाल कर देती है |