“ यदि बड़े और संसाधन संपन्न देश अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत चोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएं अमेरिकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएगी I” इस कथन की जांच करें और अपनी राय बताएं I
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"आज अमेरिकी वर्चस्व पूरे विश्व मे कायम है । जब बड़े और संसाधन संपन्न देश अमेरिकी वर्चस्व का विरोध नहीं कर सकते तो ये लगभग असंभव है कि छोटे और कमजोर देश और राज्येतर संस्थाएं उसका कोई विरोध कर पाएंगे। क्योंकि आज अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली व साधन संपन्न देश है ।
यदि वैचारिक रूप से देखा जाए तो पूंजीवाद ने साम्यवाद (कम्यूनिज्म) को काफी पीछे छोड़ दिया है । काफी लंबे समय तक साम्यवादी देशों ने पूंजीवाद का विरोध किया, लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद साम्यवाद का अंत हो गया और साम्यवादी देशों ने महसूस किया कि वे पूंजीवादी देशों की तुलना में पिछड़ रहे हैं ।
आज विश्व परिदृश्य पर चीन साम्यवादी विचारधारा का सबसे बड़ा समर्थक देश है लेकिन चीन में भी ताइवान, तिब्बत और अन्य क्षेत्रों में अलगाववाद, उदारीकरण और वैश्वीकरण के पक्ष में तथा पूंजीवाद का समर्थक वातावरण बनता रहा है ।
जब अमेरिका संयुक्त राष्ट्र की अनुमति के बिना यह पर आक्रमण कर सकता है तो यह उसकी ताकत को दर्शाता है तो ऐसे में उसके प्रतिकार की बात सोचना मुश्किल है ।
अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन आदि पर भी अपना प्रभाव कायम कर रखा है ऐसे में जब छोटे व कमजोर देश जोकि ऐसी संस्थाओं से सहायता पर निर्भर है तो वह चाहकर भी अमेरिका का विरोध नहीं कर सकते क्योंकि ये अन्तर्राष्ट्रीय संस्थायें अमेरिका के प्रभाव में हैं ।
अत: यह कहा जा सकता है कि जब ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, भारत. चीन जैसे देश अमेरिका का प्रतिकार करने में सक्षम नहीं है तो छोटे देशों की क्या हैसियत कि वह अमेरिका का प्रतिकार कर सकें।
अमेरिका का प्रतिकार कोई देश नहीं कर पाएगा । बल्कि अमेरिका का प्रतिकार सांस्कृतिक और सामजिक रूप से संभव है । जब बड़े-बड़े बुद्धिजीवी पत्रकार लेखक आदि अमेरिका की निरंकुश वर्चस्व और नीतियों की आलोचना करें । जनमत संग्रह हो, सामाजिक आंदोलन हो । धीरे-धीरे विश्व के देश अमेरिका के वर्चस्व के विरोध में एकजुट हों तभी अमेरिका का प्रतिकार संभव है ।
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