essay on kisan keaatmakathain hindi
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मैं किसान हर देश का आधार स्तम्भ हूँ। मुझ पर ही देश की आर्थिक व्यवस्था टिकी होती है। विश्व का समस्त आनन्द , ऐश्वर्य और वैभव हमारे कारण ही लोग भोग पाते हैं। एक देश के प्रत्येक व्यक्ति का जीवन हम पर निर्भर करता है। हमारे द्वारा किया गया अथक परिश्रम अन्न के रूप में खेतों में बिखरा पड़ा रहता है। हमारे कारण ही सबके घर में चूल्हे जलते हैं। यदि हम अन्न उगाना छोड़ दे , तो ज़्यादातर लोग भूखे मारे जाएँगे। यदि आप हमारी छवि को देखना चाहते हैं , तो भारतीय किसान को देखिए।
मैं स्वयं एक किसान हूँ। मैंने पिताजी के साथ बचपन से खेती का काम सीखा। अतः दसवीं के बाद इसी में लग गया। सारा-सारा दिन खेतों में मेहनत करना, धूप में खड़ा होना, हल जोतना इत्यादि काम करता था। जब फसल लहलहाती तो प्रसन्न हो जाता। मगर मेरी यह मेहनत प्रकृति की मार से कई बार नष्ट हो जाती। मेरे पिताजी ने इसी कारण आत्महत्या की थी। लगातार तीन साल कभी अतिवृष्टि और कभी सूखे के कारण फसल नष्ट हो जाती थी। पिताजी ने माताजी के सारे गहने बेच दिए। जब घर में भूखे मरने की नौबत आने लगी, तो पिताजी ने आत्महत्या कर ली।
इससे मैंने एक बात सीखी कि किसान प्रकृति के भरोसे बैठकर नहीं रह सकता है। पिताजी के मरने पर सरकार की तरफ से मुझे दो लाख रुपए मिले। अतः मैंने उन रुपयों का सदुपयोग किया और खेती के साथ अन्य व्यवसाय भी आरंभ कर दिया। सबसे पहले मैंने कुछ बकरियाँ खरीदी और इसकी ज़िम्मेदारी अपने परिवार को सौंप दी। खेती के लिए सरकार की तरफ से मिलने वाली सहायता के लिए आवेदन भरा और पानी की मोटर इत्यादि लगा दी। खेती करने का ट्रेक्टर इत्यादि किराए में लिया। इससे लाभ यह हुआ कि मुझे कम दाम और कम समय में काम पूरा होने लगा।
दो साल मुझे अच्छी फसल हुई। जब इसे बेचने के लिए मंडी गया, तो मुझे इसका बहुत कम दाम मिल रहा था। मैंने निर्णय लिया की मैं अपनी मेहनत कम दामों में नहीं बेचूँगा। अतः मैंने किराए पर एक ट्रक लिया और स्वयं अपना सामान बेचा। लोगों ने मेरी फसल हाथों-हाथ ली और मुझे अच्छी कीमत मिली।
आज में संपन्न हूँ। मगर यह हर किसान क पाए ऐसा नहीं होता है। उसे उसकी मेहनत का फल नहीं मिलता है।
मैं स्वयं एक किसान हूँ। मैंने पिताजी के साथ बचपन से खेती का काम सीखा। अतः दसवीं के बाद इसी में लग गया। सारा-सारा दिन खेतों में मेहनत करना, धूप में खड़ा होना, हल जोतना इत्यादि काम करता था। जब फसल लहलहाती तो प्रसन्न हो जाता। मगर मेरी यह मेहनत प्रकृति की मार से कई बार नष्ट हो जाती। मेरे पिताजी ने इसी कारण आत्महत्या की थी। लगातार तीन साल कभी अतिवृष्टि और कभी सूखे के कारण फसल नष्ट हो जाती थी। पिताजी ने माताजी के सारे गहने बेच दिए। जब घर में भूखे मरने की नौबत आने लगी, तो पिताजी ने आत्महत्या कर ली।
इससे मैंने एक बात सीखी कि किसान प्रकृति के भरोसे बैठकर नहीं रह सकता है। पिताजी के मरने पर सरकार की तरफ से मुझे दो लाख रुपए मिले। अतः मैंने उन रुपयों का सदुपयोग किया और खेती के साथ अन्य व्यवसाय भी आरंभ कर दिया। सबसे पहले मैंने कुछ बकरियाँ खरीदी और इसकी ज़िम्मेदारी अपने परिवार को सौंप दी। खेती के लिए सरकार की तरफ से मिलने वाली सहायता के लिए आवेदन भरा और पानी की मोटर इत्यादि लगा दी। खेती करने का ट्रेक्टर इत्यादि किराए में लिया। इससे लाभ यह हुआ कि मुझे कम दाम और कम समय में काम पूरा होने लगा।
दो साल मुझे अच्छी फसल हुई। जब इसे बेचने के लिए मंडी गया, तो मुझे इसका बहुत कम दाम मिल रहा था। मैंने निर्णय लिया की मैं अपनी मेहनत कम दामों में नहीं बेचूँगा। अतः मैंने किराए पर एक ट्रक लिया और स्वयं अपना सामान बेचा। लोगों ने मेरी फसल हाथों-हाथ ली और मुझे अच्छी कीमत मिली।
आज में संपन्न हूँ। मगर यह हर किसान क पाए ऐसा नहीं होता है। उसे उसकी मेहनत का फल नहीं मिलता है।
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भारत की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है। गाँववालों का मुख्य धंधा खेती है। इसलिए भारत की जनसंख्या में किसान अधिक हैं। किसानों की दशा बहुत अधिक विपत्तिग्रस्त है।
किसान चुपचाप दुःख उठाते हैं। यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि जो सारे राष्ट्र को खिलाते हैं वे स्वयं भूखों मरते हैं।
पहले किसान धनी जमींदारों का खेत जोतते थे। जमींदार किसानों से ज्यादा मालगुजारी वसूल करते थे। जमीन की तरक्की के लिए वे रुपए खर्च नहीं करते थे।
किसानों को उपज के लिए वर्षा पर निर्भर करना पड़ता था। सिंचाई का कोई प्रबंध नहीं था। बाढ़ और सूखा बार-बार आते थे। इससे उन्हें बड़ा दुःख होता था। इस के अलावा किसान साल में छः महीने बेकार रहते थे। पर, बेकार समय के लिए कोई धंधा नहीं था। इन सबके फलस्वरूप भारतीय किसानों की दशा अधिक दुर्दशाग्रस्त थी।
भारतीय किसान युगों से गरीब हैं। इसलिए वे भाग्यवादी हो गए हैं। अब वे स्वयं सोचते हैं कि अपना भाग्य कैसे सुधारें।
भारतीय किसानों की एक विशेषता है, जिसका उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए। वे बहुत सीधे हैं। वे ईमानदार, अतिथि-सत्कार करनेवाले और उदार हैं।
किसान चुपचाप दुःख उठाते हैं। यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि जो सारे राष्ट्र को खिलाते हैं वे स्वयं भूखों मरते हैं।
पहले किसान धनी जमींदारों का खेत जोतते थे। जमींदार किसानों से ज्यादा मालगुजारी वसूल करते थे। जमीन की तरक्की के लिए वे रुपए खर्च नहीं करते थे।
किसानों को उपज के लिए वर्षा पर निर्भर करना पड़ता था। सिंचाई का कोई प्रबंध नहीं था। बाढ़ और सूखा बार-बार आते थे। इससे उन्हें बड़ा दुःख होता था। इस के अलावा किसान साल में छः महीने बेकार रहते थे। पर, बेकार समय के लिए कोई धंधा नहीं था। इन सबके फलस्वरूप भारतीय किसानों की दशा अधिक दुर्दशाग्रस्त थी।
भारतीय किसान युगों से गरीब हैं। इसलिए वे भाग्यवादी हो गए हैं। अब वे स्वयं सोचते हैं कि अपना भाग्य कैसे सुधारें।
भारतीय किसानों की एक विशेषता है, जिसका उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए। वे बहुत सीधे हैं। वे ईमानदार, अतिथि-सत्कार करनेवाले और उदार हैं।
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